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बदरीनाथ के पथ पर / गुलाब खंडेलवाल

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अज्ञात के बंधन ने बुलाया मुझको
पर्वत के समीरण ने  बुलाया मुझको
भेजा था हिमालय ने जो गंगा के हाथ
उस पुण्य निमंत्रण ने बुलाया मुझको
 
. . .
शैलों के शिखर तोड़ती आयी गंगा
हिम-सेज धवल छोड़ती आयी गंगा
सुनते ही धरित्री के रँभाने की भनक
गैया की तरह दौड़ती आयी गंगा
. . .
ब्रह्मा के कमंडल से कढ़ी है गंगा
शिव-पाश से हँस छूट पडी है गंगा
असहाय भगीरथ की पुकारों से द्रवित
कैलाश से यह आगे बढ़ी है गंगा
 
मुनियों ने इसे ज्ञान सहेजा अपना
पर्वत ने दिया काढ़ कलेजा अपना
निज क्षीर दिया कामदुहा वन्या ने
वरदान भूतनाथ ने भेजा अपना
 
पर्वत से किलक कूदते झरने ऐसे
दौड़े हों हरिण दूब को चरने जैसे
दिख जाती है बाघिन-सी गरजती जो नदी
लगते हैं वहीं दूर सिहरने भय से
. . .
उपलों में धवल धार फिसलती ऐसे
खरगोश के शिशुओं में गिलहरी जैसे
चाँदी से चमकती हुई चोटी से उतर
फिरती हैं फुदकती हुई परियाँ भय से
. . .
आयी जो अलकनंदा अलक छितराये
द्रुत भागीरथी दौड़ी भुजा फैलाए
मिलती हों गले जैसे दो बिछुड़ी बहनें
बछड़ों से मिलें जैसे रँभाती गायें
 
चाँदी के हिँडोलों में पली हैं दोनों
चोटी से हिमानी के ढली है दोनों
गंगा ने बढ़ा हाथ छुए शिव के पाँव
या सास-बहू साथ चली हैं दोनों
. . .
गौरी ने चरण हर का पखारा है यह
पानी की नहीं दूध की धारा है यह
नंदी-सा खड़ा पास विनत-शिर हिमवान
नटराज के मंदिर का उतारा है यह
 
हिम-श्रृंग-भाल, चन्द्र बाल वय का है
शत-कोटि भुजा, नाद जलद-लय का है
फुफकार रहीं नाग-सी नदियाँ कटि में
नटराज का स्वरूप हिमालय का है

हर ओर प्रपातों ही प्रपातों का प्रकाश
धरती पे गिरे टूट के जैसे आकाश
शंकर की जटाओं से कढ़ी ज्यों गंगा
रावण की भुजाओं ने उठाया कैलाश
 
चाँदनी इसे दूध से नहलाती है
सूरज की किरण हार-सा पहनाती है
लगता है कि दुल्हन कोई घूँघट काढ़े
कुहरे से हिमानी जो झलक जाती है
 
राधा है कहीं मेघ की चूनर ओढ़े
वंशी पे झुके श्याम शिखर मुँह मोड़े
चलता है अमर रास गगन के नीचे
उस एक के दिखते  हैं हजारों जोड़े
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हिमवान है गंगा का किनारा भी है
मेघों ने मुझे दूर पुकारा भी है
धरती से तो उठता हुआ आया नभ तक
उस पार पहुँचने का सहारा भी है!