भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे / 'क़ैसर'-उल जाफ़री" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='क़मर' मुरादाबादी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
|||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
{{KKRachna | {{KKRachna | ||
− | |रचनाकार=' | + | |रचनाकार='क़ैसर'-उल जाफ़री |
|संग्रह= | |संग्रह= | ||
}} | }} |
07:57, 11 जून 2013 के समय का अवतरण
बरसों के रत-जगों की थकन खा गई मुझे
सूरज निकल रहा था के नींद आ गई मुझे
रक्खी न जिंदगी ने मेरी मुफलिसी की शर्म
चादर बना के राह में फैला गई मुझे
मैं बिक गया था बाद में बे-सरफा जान कर
दुनिया मेरी दुकान पे लौटा गई मुझे
दरिया पे एक तंज समझिए के तिश्नगी
साहिल की सर्द रेत में दफना गई मुझे
ऐ ज़िंदगी तमाम लहू राएगाँ हुआ
किस दश्त-ए-बे-सवाद में बरसा गई मुझे
कागज़ का चाँद रख दिया दुनिया ने हाथ में
पहले सफर की रात ही रास आ गई मुझे
क्या चीज़ थी किसी की अदा-ए-सुपुर्दगी
भीगे बदन की आग में नहला गई मुझे
‘कैसर’ कलम की आग का एहसान-मंद हूँ
जब उँगलियाँ जलीं तो गज़ल आ गई मुझे