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बाग़ीचे के सिपाही / मार्टिन एस्पादा

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इएला नेग्रा, चीले, सितम्बर 1973

तख़्ता-पलट के बाद,

नेरुदा के बागीचे में एक रात

सिपाही नमूदार हुए,

पेड़ों से पूछ-ताछ करने के लिए लालटेनें उठाते, ठोकरें खाकर पत्थरों को कोसते. बेडरूम की खिड़की से देखे जाने पर वे किनारों पर लूट मचाने के लिए समंदर से लौटे, डूब चुके जहाजों वाले मध्य-युगीन आक्रान्ताओं की तरह लग सकते थे.

कवि मर रहा था; कैंसर उनके शरीर के अन्दर से कौंध गया था और शोलों से लड़ने के लिए उन्हें छोड़ गया था बिस्तर पर. इतने पर भी, जब लेफ्टिनेंट ने ऊपरी मंजिल पर धावा बोला, नेरुदा ने उसका सामना किया और कहा: यहाँ तुम्हें सिर्फ एक ही चीज़ से ख़तरा है: कविता से. लेफ्टिनेंट ने अदब के साथ टोपी उतारकर श्रीमान नेरुदा से माफ़ी माँगी और सीढ़ियाँ उतरने लगा. पेड़ों पर के लालटेन एक एक करके बुझते चले गए.

तीस सालों से हम तलाश रहे हैं कोई दूसरा मंतर जो बागीचे से सिपाहियों को ओझल कर दे.