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[[बादल राग / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला" / भाग २|<< पिछला भाग]]
 <poem>सिन्धु के अश्रु !<br>धरा के खिन्न दिवस के दाह !<br>बिदाई के अनिमेष नयन !<br>मौन उर में चिन्हित कर चाह<br>छोड़ अपना परिचित संसार--<br>सुरभि के कारागार,<br>चले जाते हो सेवा पथ पर,<br>तरु के सुमन !<br>सफल करके<br>मरीचिमाली का चारु चयन।<br>स्वर्ग के अभिलाषी हे वीर,<br>सव्यसाची-से तुम अध्ययन-अधीर<br>अपना मुक्त विहार,<br>छाया में दुख के<br>अंतःपुर का उद्घाटित द्वार<br>छोड़ बन्धुओं के उत्सुक नयनों का सच्चा प्यार,<br>जाते हो तुम अपने रथ पर,<br>स्मृति के गृह में रखकर<br>अपनी सुधि के सज्जित तार।<br>पूर्ण मनोरथ ! आये--<br>तुम आये;<br>रथ का घर्घर-नाद <br> तुम्हारे आने का सम्वाद।<br>ऐ त्रिलोक-जित ! इन्द्र-धनुर्धर !<br>सुर बालाओं के सुख-स्वागत !<br>विजय विश्व में नव जीवन भर,<br>उतरो अपने रथ से भारत !<br>उस अरण्य में बैठी प्रिया अधीर,<br>कितने पूजित दिन अब तक हैं व्यर्थ,<br>मौन कुटीर।<br>आज भेंट होगी--<br>हाँ, होगी निस्सन्देह,<br>आज सदा सुख-छाया होगा कानन-गेह<br>आज अनिश्चित पूरा होगा श्रमित प्रवास,<br>
आज मिटेगी व्याकुल श्यामा के अधरों की प्यास।
</poem>
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