भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बारनि धूपि अँगारनि धूप कैँ धूम / मतिराम
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:43, 3 जून 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मतिराम }} <poem> बारनि धूपि अँगारनि धूप कैँ धूम अँध्...)
बारनि धूपि अँगारनि धूप कैँ धूम अँध्यारी पसारी महा है ।
आनन चँद समान उगो मृदु मँद हँसी जनु जोन्ह छटा है ।
फैलि रही मतिराम जहाँ तहाँ दीपति दीपनि की परभा है ।
लाल ! तिहारे मिलाप को बाल ने आजु करी दिन ही मे निसा है ।
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।