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"बाल कविताएँ / भाग 7 / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'" के अवतरणों में अंतर

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'''मेरे मामा'''
'''लोरी'''<br>
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छोटी-छोटी बकरी<br>
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छोटी–छोटी गैया ।<br>
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गैया चराए मेरे<br>
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छोटे कन्हैया ।<br>
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छोटे-छोटे हाथ <br>
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छोटे-छोटे पाँव<br>
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ठुमक-ठुमक  जाए<br>
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गोरी के गाँव ।<br>
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आँखों में दिखता<br>
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है आसमान ।<br>
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पतले –से होठों पे<br>
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छाई मुस्कान ।<br>
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किलक-किलक में<br>
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सारे गुणगान<br>
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तुतली-सी बोली में<br>
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छिपे भगवान ।<br>
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'''मेरे मामा'''<br>
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मेरे मामा
 
मेरे मामा
 
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बिल्कुल गामा ।
बिल्कुल गामा ।<br>
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पहने कुर्ता
 
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और पजामा ॥
पहने कुर्ता<br>
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बड़े सवेरे
 
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हैं जग जाते ।
और पजामा ॥<br>
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पाँच मील तक
 
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बीसों केले
बड़े सवेरे<br>
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और चपाती ।
 
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एक बार में
हैं जग जाते ।<br>
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चट कर जाते ॥
 
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मेरे मामा  
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अच्छे मामा ॥
 
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और चपाती ।<br>
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चट कर जाते ॥<br>
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मेरे मामा <br>
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'''आ भाई सूरज'''<br>
 
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आ भाई सूरज-<br>
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आ भाई सूरज-
 
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उतर धरा पर
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ले आ गाड़ी
 
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भरकर धूप ।
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बैठ बगल में
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तापें हाथ
 
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दमके रूप ।
आ भाई सूरज-<br>
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कोहरा अकड़े
बैठ बगल में<br>
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तन को जकड़े
 
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थके अलाव ।
तापें हाथ<br>
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आ भाई  सूरज
 
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दमके रूप ।<br>
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छोड़ लिहाफ़
 
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बिछा धूप की चादर ।<br>
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भगा कुहासा पल भर में ही<br>
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तनिक न देखा मुड़कर ।<br>
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घना कुहासा छा जाता है ,
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ढकते धरती अम्बर ।
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ठण्डी-ठण्डी चलें हवाएँ ,
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सैनिक जैसी तनकर ।
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भालू जी के बहुत मज़े हैं-
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ओढ़ लिया है कम्बल ।
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सर्दी के दिन बीतें कैसे
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ठण्डा सारा जंगल ।
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खरगोश दुबक एक झाड़ में
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काँप रहा था थर-थर ।
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ठण्ड बहुत लगती कानों को
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मिले कहीं से मफ़लर ।
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उतर गया आँगन में सूरज
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बिछा धूप की चादर ।
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भगा कुहासा पल भर में ही
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तनिक न देखा मुड़कर ।
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08:32, 25 जनवरी 2020 के समय का अवतरण

मेरे मामा

मेरे मामा
बिल्कुल गामा ।
पहने कुर्ता
और पजामा ॥
बड़े सवेरे
हैं जग जाते ।
पाँच मील तक
बीसों केले
और चपाती ।
एक बार में
चट कर जाते ॥
मेरे मामा
अच्छे मामा ॥
-0-
              
आ भाई सूरज

आ भाई सूरज-
उतर धरा पर
ले आ गाड़ी
भरकर धूप ।
आ भाई सूरज-
बैठ बगल में
तापें हाथ
दमके रूप ।
आ भाई सूरज-
कोहरा अकड़े
तन को जकड़े
थके अलाव ।
आ भाई सूरज
चुपके-चुपके
छोड़ लिहाफ़
अपने गाँव ।

-0-

धूप की चादर

घना कुहासा छा जाता है ,
ढकते धरती अम्बर ।
ठण्डी-ठण्डी चलें हवाएँ ,
सैनिक जैसी तनकर ।
भालू जी के बहुत मज़े हैं-
ओढ़ लिया है कम्बल ।
सर्दी के दिन बीतें कैसे
ठण्डा सारा जंगल ।
खरगोश दुबक एक झाड़ में
काँप रहा था थर-थर ।
ठण्ड बहुत लगती कानों को
मिले कहीं से मफ़लर ।
उतर गया आँगन में सूरज
बिछा धूप की चादर ।
भगा कुहासा पल भर में ही
तनिक न देखा मुड़कर ।