भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"बाल विनय 2 / श्रीनाथ सिंह" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKRachna |रचनाकार=श्रीनाथ सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatBaalKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
 
पंक्ति 21: पंक्ति 21:
 
इसके नदी पहाड़ वनों पर पक्षी सा मंडराऊं मैं।
 
इसके नदी पहाड़ वनों पर पक्षी सा मंडराऊं मैं।
 
इसका नाम न जाये चाहे अपना शीश कटाऊँ मैं,
 
इसका नाम न जाये चाहे अपना शीश कटाऊँ मैं,
भूल तुम्हे भी हे परमेश्वर !इसका ही कहलाऊँ मैं।
+
भूल तुम्हे भी हे परमेश्वर इसका ही कहलाऊँ मैं।
 
</poem>
 
</poem>

15:17, 5 अप्रैल 2015 के समय का अवतरण

विनय यही है हे परमेश्वर तुम्हारे गाऊँ मैं,
बैठा अपने दिल में स्वामी हरदम तुमको पाऊँ मैं।
पुत्र तुम्हारा कहलाऊँ मैं काम तुम्हारे आऊँ मैं,
जितने जीव रचे हैं तुमनें सबको सुख पहुँचाऊँ मैं।
मस्तक मेरा तुम्हे झुका हो उस पर हो सेवा का भार,
कैसा ही दुःख का सागर हो उसे करूँ मैं छिन में पार।
एक फूल सा हो यह जीवन लाल लाल हो जिसमें प्यार,
अच्छे कामों की सुगंध से भर दूँ मैं सारा संसार।
किसी वेष में आओ स्वामी तुम्हे सदा मैं लूँ पहिचान,
अन्धे की लकड़ी बन जाऊँ मूरख का बन जाऊँ ज्ञान।
ऐसा बल दो रोते के मुख में भर दूँ मीठी मुस्कान,
कभी नहीं उनसे मुख मोड़ूँ जो करने की लूँ मैं ठान।
है यह भारत देश हमारा इसको भूल न जाऊँ मैं,
इसके नदी पहाड़ वनों पर पक्षी सा मंडराऊं मैं।
इसका नाम न जाये चाहे अपना शीश कटाऊँ मैं,
भूल तुम्हे भी हे परमेश्वर इसका ही कहलाऊँ मैं।