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बिंत-ए-लमहात / अख़्तर-उल-ईमान

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तुम्हारे लहजे में जो गर्मी-ओ-हलावत<ref>मिठास, आत्मीयता</ref> है
इसे भला सा कोई नाम दो वफ़ा की जगह
गनीम<ref>दुश्मन</ref>-ए-नूर का हमला कहो अँधेरों पर
दयार-ए-दर्द में आमद<ref>आगमन</ref> कहो मसीहा की
रवाँ-दवाँ<ref>फैली हुई, बिखरी हुई</ref> हुए ख़ुशबू के क़ाफ़िले हर सू
ख़ला-ए-सुबह<ref>सुबह की शान्ति</ref> में गूँजी सहर की शहनाई
ये एक कोहरा सा ये धुँध सी जो छाई है
इस इल्तहाब<ref>उदासीनता, निराशा</ref> में सुर्मगीं<ref>सुरमई</ref> उजाले में
सिवा तुम्हारे मुझे कुछ नज़र नहीं आता
हयात नाम है यादों का तल्ख़ और शीरीं
भला किसी ने कभी रन्ग-ओ-बू को पकड़ा है
शफ़क़<ref>झुटपुटा</ref> को क़ैद में रखा सबा को बन्द किया
हर एक लमहा गुरेज़ाँ<ref>भागना, पलायन करना</ref> है जैसे दुश्मन है
न तुम मिलोगी न मैं हम भी दोनों लम्हे हैं
वो लम्हें जाके जो वापस कभी नहीं आते


उर्दू से लिप्यंतर : लीना नियाज

शब्दार्थ
<references/>