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बिकने की आजादी / सरोज कुमार

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सरकार ने उसे खरीद लिया है
कहने से बेहतर होगा कहना-
कि उसने स्वयं को बेच दिया है!
जो चीज बिकाऊ नहीं होती है!
उसे उड़ाया चाहे जा सकता हो
खरीदा नहीं जा सकता!

वह चालाक जरूर रहा होगा,
उसने आसामी बड़ा चुना!
इतने बड़े ग्राहक को देखकर ही
शायद, उसे बिकने की सूझी हो!
अन्यथा वह
स्वत्ंत्रचेता, बुद्धिजीवी, सृजनकर्मी जैसे
आत्मकथ्य से
नीचे नहीं उतरता!

सरकार को क्या मिला ?
कुछ कटे हुए नाखून
कुछ टूटी हुई रीढें
झुकी हुई कलमें
और कुंचियाँ!
और उसे पद, प्रतिष्ठा
बंगला और रौब!
वह जब यह समझाने की
कोशिश करता है
कि वह बिका नहीं है कतई
तब उस पर दया आती है
जिसकी उसे जरा भी जरूरत नहीं है!
और वे तो ईर्ष्यावश
उसे कोसते फिरते हैं,
जो उससे काफी कम दामों पर
उपलब्ध थे!

उसका सवाल भी गलत नहीं है
कि बिका भी है वो अगर
तो ऐसा क्या कर डाला है,
जो उसे कीचड़ से पोता जाए?
किसी विदेशी या दुश्मन को तो नहीं बिका!
-अपनी सरकार
-अपने लिए
-अपने द्वारा
-उसने बेचा अपने को
-अपने लिए
-अपने द्वारा,
बिकने की आजादी
सवैधानिक है!

फिर, बिक सकेगा वही
जिसकी डिमांड होगी,
आप बिकने की कोशिश कर देखिए
सरकार तो दूर
म्युनिसिपैलिटी भी घास नहीं डालेगी!