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बिजलियाँ जो भी अब गिराएगा।
वो किसी तौर बच न पाएगा।
चाँद-तारे फ़लक से ग़ायब हैं,
कौन शब का बदन सजाएगा?
 
रिश्ता नाज़ुक है आग-पानी का,
कब समझ में बशर की आएगा?
 
मन लगाऊँ कहाँ मैं दुनिया में,
कब मुझे कोई ये बताएगा?
 
‘नूर’ उसको कहाँ तलाशें हम?
मस्अला ये सुलझ न पाएगा।
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