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बिस्तर / सुदर्शन वशिष्ठ

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कभी होता है
मूंज के बाण का
कभी निवार लगा
हां, कभी डनलप स्लीपवेल
देता है तभी नींद आराम
जब मन में हो चैन।

कभी होता है ओढ़ना
नहीं होता बिछौना
कभी बांह का सिरहाना।

थका हो आदमी
मेहनत मजदूरी कर दिन भर
सहे हों धूप-धूल के थपेड़े
बैठते ही सो जाता है
नहीं चाहिए होता बिस्तर बिछौना
मिल जाए बस
एक पत्थर का सिरहाना।

जो थका टूटा नहीं शरीर
दिमाग थका है
दांव पेंच से
सो नहीं पाता
गद्देदार बिस्तर पर।

कुछ हैं जो सो जाते
खड़े-खड़े
बैठे-बैठे
कुछ हैं जो रात भर
बदलते हैं करवटें।

कभी चादर छोटी
पाँव पसारें तो मुँह न ढके
कहीं भुईंया बछाण
कहीं रुई का बिस्तर
कि आदमी धंसे।

कोई सो जाए घोड़े बेच
फुटपाथ पर प्लेटफार्म पर
शोर बन जाए लोरी
भूख न ढूंढे सब्जी-भाजी
नींद न ढूंढे बिछौना।

कोई सोया रहे बेखबर
कक्षा नायक बन
कभी करने लगे उस पर
कोई कातिलाना हमला
कोई चुराने लगे गांठ
कोई सोचे राज देने की
कोई दे गाली
कोई करे प्रशंसा
वह बस पड़ा रहे
अपने सपनों में विचरता।

जीवन का ज्यादा समय
काटता है बिस्तर पर आदमी
बिस्तर पर जन्मता
बिस्तर पर जीता
हँसता खेलता
बिस्तर पर मरता।

देता है बिस्तर आराम
सफर के बाद
प्रेम के अंतरंग क्षण
देता बिस्तर
बच्चों के लिए सुरक्षित किला
प्रेमियों का रह गुजर
बीमारों का हमसफर।

पीढ़ियों से मरता आया
बिस्तर पर
दाता बाप सभी मरे बिस्तर पर
फिर भी बहुत प्यारा है बिस्तर
जिस पर बाप मरा ताजा-ताजा
उसी पर सोता है लंबी तान।

जिसके लिए स्प्रिंग लगा गद्देदार बिस्तर
वह भी जीता है
जिसके लिये भूमि बिछौना
आकाश ओढ़ना
वह भी जीता है
जिसके लिए माटी बिछौना
पत्थर सिरहाना
वह भी जीता है
बस नींद है अपनी-अपनी
अपने-अपने सपने।