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"बींधते हैं प्रश्नचिन्ह / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान" के अवतरणों में अंतर

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इस तरह हम आचरण करने लगे ।
 
इस तरह हम आचरण करने लगे ।

13:42, 1 मार्च 2011 के समय का अवतरण

बींधते हैं प्रश्नचिन्ह

बींधती हैं प्रश्नचिन्हों की निगाहें
इस तरह हम आचरण करने लगे ।

पल रहीं प्रतिशोध की
मन भावनाएँ
आस्था के केन्द्र ढहने लग गये,
प्रतिक्रिया की अग्नि से
होकर प्रभावित
घर हमारे आज जलने लग गये,
मंज़िलों को
पार करने के लिये हम
हर तरह का रास्ता चुनने लगे ।

सत्य ने अब
झूठ के दरबार जाकर
टेक कर घुटनें झुकाया शीश है,
बुजदिली को
हर क़दम पर रोशनी से
वीरता का मिल रहा आशीष है,
स्वार्थ की जलती शिखा में
नेह के
मोम से सम्बन्ध हैं गलने लगे ।

कह रही है आज
पीठें आदमी की
घाव कब कितने कहाँ पर हैं लगे,
ज़ख़्म को
जितना कुरेदा मलहमों ने
दर्द से उतना गए हैं वे ठगे,
बेहिचक अब
आस्तीनों में हमारी
द्वेष के विष सर्प हैं पलने लगे ।