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बीसवीं सदी / नाज़िम हिक़मत

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’जानेमन आओ अब सो जाएँ
और जगें सौ साल बाद’

नहीं
मैं भगोड़ा नहीं
अलावा इसके,अपनी सदी से मैं भयभीत नहीं ।
मुसीबतों की मारी मेरी यह सदी
शर्म से झेंपी हुई
हिम्‍मत से भरी हुई मेरी यह सदी
बुलन्द और दिलेर
मुझे कभी अफ़सोस नहीं हुआ
कि क्‍यों इतनी जल्‍दी पैदा हो गया ।

बीसवीं सदी में पैदा हुआ
फ़ख्र है इसका मुझे
जहाँ भी हूं अपने लोगों के बीच हूँ, काफ़ी है मेरे लिए
और यह कि एक नई दुनिया के लिए मुझे लड़ना है

‘जानेमन सौ साल बाद’
मगर नहीं,पहले ही उसके और सब कुछ के बावजूद
मरती और फिर-फिर पैदा होती हुई मेरी सदी
मेरी सदी, जिसके आख़िरी दिन ख़ूबसूरत होंगे
सूरज की रोशनी जैसी खुल-खुलेगी मेरी सदी
जानेमन, तुम्‍हारी आँखों की तरह ।
(1941)
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अनुवाद : सुरेश सलिल