भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बूढ़ऽ तेॅ जपाले होय छै / कैलाश झा ‘किंकर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घरे-घऽर धमाले होय छै।
बूढ़ऽ तेॅ जपाले होय छै॥

बेटा-पोता खातिर मरलौं
बीज जेकां मिट्टी में सड़लौं
हरा-भरा अब सौंसे बगिया
लत्ती जेकां खूब पसरलौं

कि जन गेलियै अन्त समय में
बूढ़-पुरान पैमाले होय छै।

बनलऽ घर में घुसी गेलै
पेंसन लेली रुसी गेलै
बड़ा जतन सें फसल लगैलियै
साँसे खेत में भूसी भेलै

बूढ़ लेॅ देखऽ दलान में
खटियो ते कमाले होय छै।

कथी लेॅ कोय बूढ़ऽ के सुनतै
टहल-टिकोरा तनियों गुंनतै
भैयारी में झगड़ा करी केॅ
गड़लऽ मुर्दा रोज उखनतै

बे-अदबी सें लागै जेना
सन्तानों चण्डाले होय छै।

धीरंे-धीरें बात समझलौं
नई पीढ़ी के घात समझलाँ
घर के सबकुछ बाँटैवाला
बेटा के जजबातेॅ समझलाँ

पास-पड़ोसी ताना मारै
सम्बन्धी जंजाले होय छै।