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बूढा चांद / सुमित्रानंदन पंत

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बूढा चांद कला की गोरी बाहों में क्षण भर सोया है

यह अमृत कला है शोभा असि, वह बूढा प्रहरी प्रेम की ढाल!

हाथी दांत की स्‍वप्‍नों की मीनार सुलभ नहीं,- न सही! ओ बाहरी खोखली समते, नाग दंतों विष दंतों की खेती मत उगा!

राख की ढेरी से ढंका अंगार सा बूढा चांद कला के विछोह में म्‍लान था, नये अधरों का अमृत पीकर अमर हो गया!

पतझर की ठूंठी टहनी में कुहासों के नीड़ में कला की कृश बांहों में झूलता पुराना चांद ही नूतन आशा समग्र प्रकाश है!

वही कला, राका शशि,- वही बूढा चांद, छाया शशि है!