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बेदाग़ चाँद / वसुधा कनुप्रिया

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तुम कहते थे मुझे
चाँद, बेदाग़ चाँद
पहलू में रखते थे
सजा, छिपा हरदम

फिर एक दिन
चाँद को चुरा
सरेराह
कर दिया दाग़दार
चंद बेख़ौफ दरिंदो ने
और छिप गया चाँद
सदा के लिये
अपमान और कलंक
के अमावसी आकाश में

तुमनें, फेर ली नज़र
न कहा चाँद कभी
न बैठाया पहलू में
भूल गये वादे सभी

तिरस्कृत
अपमानित
लाचार चाँद
तोड़ आईने सब
जल उठा धुआँ धुआँ
और भस्म हो गया
मासूम बेदाग़ चाँद
पावन मन और
काया काली ले
चीख़ता, तड़पता
गल गया, घुल गया
चिरंतन में !