भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बैठने की जगह / मोहन साहिल

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:38, 19 जनवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मोहन साहिल |संग्रह=एक दिन टूट जाएगा पहाड़ / मोहन ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब किया है पक्का इरादा
फिर बदल डालूँगा बैठने की जगह
यहाँ फैल गया है बहुत धुआँ
सामने पड़ी चाय की प्याली में
घुल गई है कड़वाहट

आ जमे हैं मेरे इर्द-गिर्द
बहुत से अनचाहे लोग
बेवजह दाँत निपोरते ठहाके लगाते

मुझे नहीं करनी चर्चा
राजनीति और साहित्य पर
क्षितिज पर क्या चमक रहा है
इस अँधेरे मे भी
बता नहीं सकता
क्योंकि
परेशान हूँ मैं
माँ की खाँसी की खर्राहट से
बीवी की बिवाइयों का लहू
फैला है घर में हर ओर
कंपकंपी छूटती है
बेटे की फटी कमीज़ से झाँकता सीना देखकर
बेटा जो उत्सव में जाने को तैयार है
कौन हैं वे लोग जो गर्वित हैं
धक्कों से चलती गाड़ी में बैठे
गड्ढों की कीचड़ हमारे चेहरे पर पोतकर

सड़क के करीब रहना कितना कठिन है
हर वाहन मेरे ही घर के आगे हार्न बजाता है
और खंडित कर जाता है
कहीं न जाने का विचार

मैं हर बार उसी छोटे घर में
बदल लेता हूँ बैठने की जगह
पहले से हर बार असुरक्षित
खाँसी के और करीब
लहू से अधिक लिथड़ा
और कीचड़ में फिर पुतता है चेहरा।