भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बौराहा / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सजा सके न अपने घर को औरों का घर झाँके
किसकी कमी भला है घर में, धन भी, धान है, कोठी
फगुआ, चैता, कजरी, झूमर, शंकर, देश, झिंझोटी
गोजिया, पूआ-भोग छोड़, अभागा बालू जा कर फाँके ।

इतने-इतने रस से जिसका भरा नहीं जी, उसका
कैसे पके हुए बैगन के रस से है सन्तुष्ट
बता रहा है पाक सिद्ध है, सबमें है परिपुष्ट
मुझको तो लगता है इसका ही दिमाग है खिसका ।

शब्द-शब्द में छुपी व्यंजना, और लक्षणा बल है
जो लालित्य छिपा है पद में, अलंकार की लीला
उसे नहीं समझेगा वह जो तोड़ रहा है टीला
मुझको तो जाने कितने ही छन्दों का संबल है ।

मड़ुआ को मत मुझे बताओ यह तुलसी मंजरी है
मुझको खूब पता है भैया, क्या झाँझर-झँझरी है ।