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भरा था चाहतों का आँख में आकाश कितना / उर्मिल सत्यभूषण

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भरा था चाहतों का आँख में आकाश कितना
मिला है जिं़दगी को इसलिये वनवास कितना

उड़ानों को नहीं अपनी हदों तक कैद रखा
खुले पर को मगर है पीर का एहसास कितना

ज़मीं अपनी, फलक अपना छुड़ा कर ले गई हसरत
किसी को क्या पता संग लुट गया उल्लास कितना

मेरी रग-रग में बहता है लहु बनकर वजूद उसका
वो मुझसे दूर होकर भी है मेरे पास कितना

कि उसके गिर्द मेला लग गया सुख साधनों का
धुरी सा घूमता वो हो गया है दास कितना

ये प्रवासी परिन्दे लौटकर घर आ नहीं पाते
मगर लौटेंगे उर्मिल घर, उन्हें विश्वास कितना।