"भात दे, हरामज़ादे ! / रफ़ीक़ आज़ाद / अमिताभ चक्रवर्ती" के अवतरणों में अंतर
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+ | ‘ভাত দে হারামজাদা’ | ||
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+ | ভীষণ ক্ষুধার্ত আছিঃ উদরে, শারীর বৃত্ত ব্যেপে | ||
+ | অনুভূত হ’তে থাকে – প্রতিপলে – সর্বগ্রাসী ক্ষুধা! | ||
+ | অনাবৃস্টি – যেমন চৈত্রের শষ্যক্ষেত্রে – জ্বেলে দ্যায় | ||
+ | প্রভূত দাহন – তেমনি ক্ষুধার জ্বালা, জ্বলে দেহ। | ||
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+ | দু’বেলা দু’মুঠো পেলে মোটে নেই অন্যকোন দাবি, | ||
+ | অনেকে অনেক-কিছু চেয়ে নিচ্ছে, সকলেই চায়ঃ | ||
+ | বাড়ি, গাড়ি, টাকাকড়ি – কারোর বা খ্যাতির লোভ আছে; | ||
+ | আমার সামান্য দাবিঃ পুড়ে যাচ্ছে পেটের প্রান্তর – | ||
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+ | ভাত চাই – এই চাওয়া সরাসরি – ঠাণ্ডা বা গরম, | ||
+ | সরু বা দারুণ মোটা রেশনের লাল চালে হ’লে | ||
+ | কোনো ক্ষতি নেই—মাটির শানকি ভর্তি ভাত চাই; | ||
+ | দু’বেলা দু’মুঠো পেলে ছেড়ে দেবো অন্য সব দাবি! | ||
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+ | অযৌক্তিক লোভ নেই, এমনকি, নেই যৌন-ক্ষুধা- | ||
+ | চাইনি তোঃ নাভিনিম্নে পরা শাড়ি, শাড়ীর মালিক; | ||
+ | যে চায় সে নিয়ে যাক-যাকে ইচ্ছা তাকে দিয়ে দাও- | ||
+ | জেনে রাখোঃ আমার ওসবে কোনো প্রয়োজন নেই। | ||
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+ | যদি না মেটাতে পারো আমার সামান্য এই দাবি, | ||
+ | তোমার সমস্ত রাজ্যে দক্ষযজ্ঞ কাণ্ড ঘ’টে যাবে; | ||
+ | ক্ষুধার্তের কাছে নেই ইস্টানিস্ট, আইন কানুন- | ||
+ | সন্মুখে যা-কিছু পাবো খেয়ে যাবো অবলীলাক্রমে; | ||
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+ | থাকবে না কিছু বাকি –চ’লে যাবে হা-ভাতের গ্রাসে। | ||
+ | যদি বা দৈবাৎ সন্মুখে তোমাকে, ধরো , পেয়ে যাই- | ||
+ | রাক্ষুসে ক্ষুধার কাছে উপাদেয় উপচার হবে। | ||
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+ | সর্বপরিবেশগ্রাসী হ’লে সামান্য ভাতের ক্ষুধা | ||
+ | ভয়াবহ পরিণতি নিয়ে আসে নিমন্ত্রণ করে! | ||
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+ | দৃশ্য থেকে দ্রস্টা অব্দি ধারাবাহিকতা খেয়ে ফেলে | ||
+ | অবশেষে যথাক্রমে খাবোঃ গাছপালা, নদী-নালা, | ||
+ | গ্রাম-গঞ্জ, ফুটপাত, নর্দমার জলের প্রপাত, | ||
+ | চলাচলকারি পথচারী, নিতম্ব প্রধান নারী, | ||
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+ | উড্ডীন পতাকাসহ খাদ্যমন্ত্রী ও মন্ত্রীর গাড়ি- | ||
+ | আমার ক্ষুধার কাছে কিছুই ফেলনা নয় আজ। | ||
+ | ত দে হারামজাদা, তা-না-হ’লে মানচিত্র খাবো।। | ||
+ | রফিক আজাদের এই কবিতাটি আবৃত্তির জন্য অনেকেই | ||
+ | খুঁজেন। আমারও ভালা লাগে এই কবিতাটি। | ||
+ | ‘রফিক আজাদের শ্রেষ্ঠ কবিতা’—‘অব্যয়’ প্রকাশনার | ||
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+ | ১৪ ফেব্রুয়ারী ১৯৮৭ সালে প্রকাশিত গ্রন্থ থেকে তুলে | ||
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21:51, 26 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण
बहुत भूखा हूँ, पेट के भीतर लगी है आग, शरीर की समस्त क्रियाओं से ऊपर
अनुभूत हो रही है हर क्षण सर्वग्रासी भूख, अनावृष्टि जिस तरह
चैत के खेतों में, फैलाती है तपन
उसी तरह भूख की ज्वाला से, जल रही है देह
दोनों शाम, दो मुट्ठी मिले भात तो
और माँग नहीं है, लोग तो बहुत कुछ माँग रहे हैं
बाड़ी, गाड़ी, पैसा किसी को चाहिए यश,
मेरी माँग बहुत छोटी है
जल रहा है पेट, मुझे भात चाहिए
ठण्डा हो या गरम, महीन हो या मोटा
राशन का लाल चावल, वह भी चलेगा
थाल भरकर चाहिए, दोनों शाम दो मुट्ठी मिले तो
छोड़ सकता हूँ अन्य सभी माँगें
अतिरिक्त लोभ नहीं है, यौन क्षुधा भी नहीं है
नहीं चाहिए, नाभि के नीचे की साड़ी
साड़ी में लिपटी गुड़िया, जिसे चाहिए उसे दे दो
याद रखो, मुझे उसकी ज़रूरत नहीं है
नहीं मिटा सकते यदि मेरी यह छोटी माँग, तो तुम्हारे सम्पूर्ण राज्य में
मचा दूँगा उथल-पुथल, भूखों के लिए नहीं होते हित-अहित, न्याय-अन्याय
सामने जो कुछ मिलेगा, निगलता चला जाऊँगा निर्विचार
कुछ भी नहीं छोड़ूँगा शेष, यदि तुम भी मिल गए सामने
राक्षसी मेरी भूख के लिए, बन जाओगे उपादेय आहार
सर्वग्रासी हो उठे यदि सामान्य भूख, तो परिणाम भयावह होते है याद रखना
दृश्य से द्रष्टा तक की धारावाहिकता को खाने के बाद
क्रमश: खाऊँगा,पेड़-पौधे, नदी-नाले
गाँव-कस्बे, फुटपाथ-रास्ते, पथचारी, नितम्ब-प्रधान नारी
झण्डे के साथ खाद्यमन्त्री, मन्त्री की गाड़ी
मेरी भूख की ज्वाला से कोई नहीं बचेगा,
भात दे, हरामज़ादे ! नहीं तो खा जाऊँगा तेरा मानचित्र।
मूल बांग्ला से अनुवाद : अमिताभ चक्रवर्ती
(1974 में बांग्लादेश में पड़े अकाल के दौरान लिखी गई कविता)
लीजिए, अब यही कविता मूल बांग्ला में पढ़िए
‘ভাত দে হারামজাদা’
ভীষণ ক্ষুধার্ত আছিঃ উদরে, শারীর বৃত্ত ব্যেপে
অনুভূত হ’তে থাকে – প্রতিপলে – সর্বগ্রাসী ক্ষুধা!
অনাবৃস্টি – যেমন চৈত্রের শষ্যক্ষেত্রে – জ্বেলে দ্যায়
প্রভূত দাহন – তেমনি ক্ষুধার জ্বালা, জ্বলে দেহ।
দু’বেলা দু’মুঠো পেলে মোটে নেই অন্যকোন দাবি,
অনেকে অনেক-কিছু চেয়ে নিচ্ছে, সকলেই চায়ঃ
বাড়ি, গাড়ি, টাকাকড়ি – কারোর বা খ্যাতির লোভ আছে;
আমার সামান্য দাবিঃ পুড়ে যাচ্ছে পেটের প্রান্তর –
ভাত চাই – এই চাওয়া সরাসরি – ঠাণ্ডা বা গরম,
সরু বা দারুণ মোটা রেশনের লাল চালে হ’লে
কোনো ক্ষতি নেই—মাটির শানকি ভর্তি ভাত চাই;
দু’বেলা দু’মুঠো পেলে ছেড়ে দেবো অন্য সব দাবি!
অযৌক্তিক লোভ নেই, এমনকি, নেই যৌন-ক্ষুধা-
চাইনি তোঃ নাভিনিম্নে পরা শাড়ি, শাড়ীর মালিক;
যে চায় সে নিয়ে যাক-যাকে ইচ্ছা তাকে দিয়ে দাও-
জেনে রাখোঃ আমার ওসবে কোনো প্রয়োজন নেই।
যদি না মেটাতে পারো আমার সামান্য এই দাবি,
তোমার সমস্ত রাজ্যে দক্ষযজ্ঞ কাণ্ড ঘ’টে যাবে;
ক্ষুধার্তের কাছে নেই ইস্টানিস্ট, আইন কানুন-
সন্মুখে যা-কিছু পাবো খেয়ে যাবো অবলীলাক্রমে;
থাকবে না কিছু বাকি –চ’লে যাবে হা-ভাতের গ্রাসে।
যদি বা দৈবাৎ সন্মুখে তোমাকে, ধরো , পেয়ে যাই-
রাক্ষুসে ক্ষুধার কাছে উপাদেয় উপচার হবে।
সর্বপরিবেশগ্রাসী হ’লে সামান্য ভাতের ক্ষুধা
ভয়াবহ পরিণতি নিয়ে আসে নিমন্ত্রণ করে!
দৃশ্য থেকে দ্রস্টা অব্দি ধারাবাহিকতা খেয়ে ফেলে
অবশেষে যথাক্রমে খাবোঃ গাছপালা, নদী-নালা,
গ্রাম-গঞ্জ, ফুটপাত, নর্দমার জলের প্রপাত,
চলাচলকারি পথচারী, নিতম্ব প্রধান নারী,
উড্ডীন পতাকাসহ খাদ্যমন্ত্রী ও মন্ত্রীর গাড়ি-
আমার ক্ষুধার কাছে কিছুই ফেলনা নয় আজ।
ত দে হারামজাদা, তা-না-হ’লে মানচিত্র খাবো।।
রফিক আজাদের এই কবিতাটি আবৃত্তির জন্য অনেকেই
খুঁজেন। আমারও ভালা লাগে এই কবিতাটি।
‘রফিক আজাদের শ্রেষ্ঠ কবিতা’—‘অব্যয়’ প্রকাশনার
১৪ ফেব্রুয়ারী ১৯৮৭ সালে প্রকাশিত গ্রন্থ থেকে তুলে