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भूले भी आश्रम की दिशि
 
सज गये साज साज़ मंगल के तोरण-कलश-द्वार
नभ-सुमन-वृष्टि, मुनि करते वैदिक महोच्चार
'जय राम! अखिल जग-शक्ति-शील-सौन्दर्य-सार
जन एक कहीं न दुखी हो'
 
लौटे मुनिगन मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान
आश्रम से अनति दूर जड़ता ज्यों मूर्तिमान
थी जहाँ गौतमी बिता रही दिन तृण-समान
. . .
पुरजन समाज -परिजन से तिरस्कृता अबला, अनाथ
सहती समाज की घृणा न कोई संग-साथ
त्यक्ता तरुणी को पारस-मणि-सी लगी हाथ
 
दिन बीते, बीती रात, प्रात फिर साँझ हुई
बन गया गयी प्रतीक्षा जैसे विष की बुझी सुई
निस्तेज अहल्या बिना छुई ज्यों छुईमुई
मकड़ी-सी पाशबद्ध जैसे ककड़ी कड़ुई
जन-सेवा-हित गृह-त्यागी
 
देखा मुनि के देखे मुनि के सँग कोटि-काम-शोभाभिराम
इन्दीवर-निन्दित-नयन, राम, घन-सजल-श्याम
नत, शांत, मौन, स्वस्थित-से, चिर आनंद-धाम
मैं हाय! अभागिन, नागिन-सी कर उठी वार
प्रभु शिला बन गयी नारी शिर ले शाप-भार
तुम , देव! खोल दो आज हृदय के रुद्ध द्वार
जड़ता नव-जीवन पाये
. . .
'अंतर में जो भी कलुष, पाप, लांछना, व्यथा
सब बनें आज कंचन-सी पारस परस यथा
कैसे कह दूँ मैं , देव! कि जीवन  जीवन गया वृथा
जब जुड़ी अहल्या के सँग पावन राम-कथा
कल्याणी, मंगलकारी!
 
जलता न हृदय में ग्रीष्म, नयन सावन होते!
क्यों आते जग में आते राम न जो रावण होते!
होते न पतित तो कहाँ पतित-पावन होते!
प्रभु ! चरण तुम्हारे कैसे मनभावन होते
बनती न शिला जो नारी!'
 
मैं भक्ति-मुक्ति से भरता उनके रिक्त हाथ
दूँ बहा सृष्टि में प्रेम-जाह्नवी पुण्य-पाथ
बस इसीलिए इसी लिए आया हूँ
 
अब रहा न तेरी पावनता में मीन-मेष
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