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भावी का धनुष-भंग, सीता-राघव-विवाह / द्वितीय खंड / गुलाब खंडेलवाल

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भावी का धनुष-भंग, सीता-राघव-विवाह 
किंवा रावण-जय कर फिरने-सा महोत्साह 
पगतल-नत सानुज राम-रूप मुनि थके थाह
'ताड़िका-सुबाहु-विजय की इनसे करूँ चाह!'
संशय, भय, विस्मय जागे   

'ये मृदुल अल्प-वय बाल कमल के दल जैसे
दिग्गज मदांध दुर्दांत भीम दानव वैसे
इनसे भीषण रिपु-शक्ति विजित होगी कैसे?
गूँजेगा विश्व भला फिर देवों की जय से?
होगी दिक्-दिक् मख पूजा?
. . .
 
सहसा खुल गये बंद अंतर के ज्योति-द्वार
'थे राम मनुज? सच्चिदानंद, पूर्णावतार'
देखा विराट् विभु-रूप सामने महाकार
क्षिति-भार-हरण, भव-शरण-वरण, जन-हृदय-हार
सुर-नर-विधि-हरि-हर-पूजित
 
हिल्लोलित जलनिधि चरणों पर खाता पछाड़
ब्रह्माण्ड कोटि प्रति रोम, त्रस्त गिरते पहाड़
करतल से जलते त्रिभुवन को दे रहे आड़
देखा कौशिक ने चकित मुँदे लोचन उघाड़
पल-भर वह रूप अकल्पित
 
करते नभ से जयघोष देव-किन्नर समस्त
शत कोटि भुजा भाव-व्याप्त, स्रजन-संहार-व्यस्त
दिग-काल-भ्रष्ट देखे खगोल शत उदित, अस्त
अभिवादन-मिस माँगते क्षमा संपुटित-हस्त
दृग झुके भूमि पर भय से
. . .
 
कुछ क्षण रुक बोले मुनि फिर नृप का देख चाव
'राजन! मैं आया आज लिए कुछ स्वार्थ-भाव
रक्षण ऋषियों का यह तो क्षत्रिय का स्वभाव
देखते तुम्हारे यज्ञ-ध्वंस हों महाराव
हिंसक असुरों के द्वारा!
. . .

बोले मुनि, 'राजन धैर्य धरो सब सुनकर भी
असुरों से रण की युक्ति रचेगी और कभी
तुम रहो अवध में, रहे तुम्हारी सैन्य सभी
बस मुझको दे दो राम-लखन दो कुँवर अभी
निज आश्रम की रक्षा को
. . .
 
'पुर, परिजन, प्रिय परिवार, बंधु, धन, धाम सही
मैं दे सकता हूँ सब कुछ लेकिन राम नहीं
मुनि गूँज रहा नस-नस में मेरे नाम वही'
नृप कह न सके आगे, पलकें अविराम बहीं
परिषद डूबी उतरायी
 . . .

दिख पड़ी सामने सरयू निर्मल पुण्य-पाथ
तब कहा राम ने पुरवासी-दिशि जोड़ हाथ
'अब फिरें आप यों विकल न होंगे अवध-नाथ!
मैं लौटूंगा द्रुत, द्रुततर, द्रुततम बंधु साथ 
मुनि  का आदेश  वहन कर
 
'खल-दमन, संत-जन-रक्षण-हित है प्रभुताई  
आशिष दें, भूलूँ नहीं क्षात्र-व्रत मैं, भाई!
सेवा में ही दी मुक्ति मुझे तो दिखलाई
है ध्येय, पोंछ प्रति दृग के आँसू दुखदायी
निर्भय कर दूँ भव-अंतर
 
'"नर-तनु निष्फल पर-हित में नहीं लगाया जो
जीवन क्या है दुखियों के काम न आया जो!
विजयी, निज-पर की तोड़ सका दृढ माया जो
त्यागा जिसने संसार, उसी का पाया हो"   
मैं यही सिखाने आया
 
'हो अभय, मुक्त जग, रहे न कोई विफल-काम
प्रतिजन मुझमें, प्रतिजन में मैं रम रहा राम
मैं धरती पर रचकर नूतन वैकुण्ठ-धाम
नर को नारायण का कैसे मिल सके नाम
वह मार्ग दिखाने आया'
  . . .

गुण-शील-रूप-व्रत एक, राम-प्रतिछवि ललाम
लघु भ्राता-सँग आ गए भरत ज्यों फिरे राम
हँस बोले, 'प्रभु त्रिभुवन-नायक से बचे वाम
सुर, असुर, नाग, नर, ऐसा कहीं न शक्ति-धाम
जननी! मत तनिक बिचारें'
 
कौसल्या ने पुलकित प्राणों से लिया लगा
आनन युग सुत का निश्छल! पावन, स्नेहरँगा
बोली गदगद्, 'प्रिय तुमसे बढ़कर पुत्र सगा!
रहता तुममें ही राम-लखन का हृदय टँगा
तुम कभी न उनसे न्यारे'
. . .

हो गया ढेर पल में सुबाहु-मुख-बाहु-हीन
रथ, अश्व, पदातिक, सैन्य दिवातम-से विलीन
सागर के पार उड़ा शर खा मारीच दीन
जो बचे, फिरे छवि-क्षीण, पुन: लौटे कभी न
भूले भी आश्रम की दिशि
 
सज गये साज़ मंगल के तोरण-कलश-द्वार
नभ-सुमन-वृष्टि, मुनि करते वैदिक महोच्चार
'जय राम! अखिल जग-शक्ति-शील-सौन्दर्य-सार
त्रय-ताप-हरण, भव-शरण करण-कारण उदार
पा तुम्हें विगत माया-निशि
 
'तुम साधन-हीन दीन जन के रक्षक, त्राता
जन-जन के अंत:-स्रोत, शक्ति-शुभगति-दाता
आदर्श-चरित, जय! निगमागम-से युग भ्राता
हो निर्बल अबसे कहीं न कोई दुख पाता
तुम निर्धन के धन आये
 
'योगी ने देखा तुम्हें तुरीयावस्था धर 
मुनि ने मन में, ऋषियों ने सृष्टि-व्यवस्था पर
घट-घट-वासी विभु तुम्हीं वैदिकों के ईश्वर
जय! मनुज-रूप, सुर-भूप, भक्त-भय-हर, सुखकर
तुम जग के जीवन आये
 
'मर्यादा जाग उठी धर्मों की लुप्त-प्राय
घर-घर में यज्ञ-हुताशन, समता, सत्य, न्याय
तुम आये प्रभु! बहुजन-हिताय, बहुजन-सुखाय
सन्देश धर्म का जिससे घर-घर फैल जाय
संसृति सब भाँति सुखी हो
 
'कोई न काम-रत, स्वेच्छाचारी, शक्ति-भीत
संकलित, संतुलित, जन-जन के जीवन विनीत
रण जड़ तत्वों में, क्रीड़ा, कौतुक, हार-जीत
सबको सम, सहज धरा के धन, हिम, ताप, शीत
जन एक कहीं न दुखी हो'
 
लौटे मुनिगण करते दिशि-दिशि प्रभु-यशोगान
आश्रम से अनति दूर जड़ता ज्यों मूर्तिमान
थी जहाँ गौतमी बिता रही दिन तृण-समान
कह दिया किसीने राजकुँवर युग छवि-निधान
मृगया के हित हैं आये
. . .

पुरजन-परिजन से तिरस्कृता अबला, अनाथ
सहती समाज की घृणा न कोई संग-साथ
त्यक्ता तरुणी को पारस-मणि-सी लगी हाथ
प्रमुदित, शंकित, गर्वित, लज्जित-सी उठ हठात् 
उसने नव वसन सजाये
. . .
 
दिन बीते, बीती रात, प्रात फिर साँझ हुई
बन गयी प्रतीक्षा जैसे विष की बुझी सुई
निस्तेज अहल्या बिना छुई ज्यों छुईमुई
मकड़ी-सी पाशबद्ध जैसे ककड़ी कड़ुई
सोये से मानों जागी
 
कटि पर घट ले आलुलित-केश, सद्य:स्नाता
चल दी कौशिक-मख-भूमि जिधर थी विख्याता
थे जहाँ बसे सुर-मुनि-सुख-दाता, भव-त्राता 
युग अस्ति-नास्ति-से गौर-श्याम, दोनों भ्राता  
जन-सेवा-हित गृह-त्यागी
 
देखे मुनि के सँग कोटि-काम-शोभाभिराम
इन्दीवर-निन्दित-नयन, राम, घन-सजल-श्याम
नत, शांत, मौन, स्वस्थित-से, चिर आनंद-धाम
युग भक्ति-मुक्ति-से चरण, भीत भाव के विराम
संकुचित धरा पर धरते

गंभीर, धीर, शुचि, सरल, गुणों के समुचय-से
पीछे लक्ष्मण तनु गौर, आ रहा यश जैसे  
सब पाप-ताप कर क्षार स्नेहमय दृग-द्वय से
धनु-शर कर, उर मणि-माल, बढ़ रहे विस्मय-से
भव को आलोकित करते
. . . 
 
श्यामल अलकें ज्यों बिछी शिला सम्मुख प्रभु के 
राजीव-नयन गुरु की दिशि मुड़, संकुचित रुके
बोले मुनि, 'राघव! रघुकुल का गौरव न झुके
परित्यक्ता गौतम-वधू पाप से शतक्रतु के
यह अबला, दीन, बिचारी
 
आहत हरिणी-सी उर में विष की लिए चोट
बस तनिक तुम्हारी चरण-रेणु-हित रही लोट
प्रभु दो कलंकिनी को करुणा की अभय ओट
ढह जायें जिससे कोटि जन्म के पाप-कोट
फूले उदास फुलवारी'
 
मंगल-गौरव-छवि-धाम राम निष्काम बढ़े
अभिशप्त, तप्त भू की दिशि ज्यों घनश्याम बढ़े
तमपूर्ण गुहा में जैसे किरण ललाम बढ़े
छूते ही दृग से अश्रु-तुहिन अविराम झड़े 
गल गयी शिला-सी नारी
 
युग-युग का पाप-ताप पल में जल हुआ क्षार
आ गयी तीर पर तरणी जैसे निराधार
साधन-भ्रष्टा ने पाया मानों सिद्धि-द्वार
पग से लिपटी कर उठी आर्त स्वर में पुकार
जग के छल-बल से हारी
. . .
  
अनुरागी मन के पावन पति पर ही उदार
मैं हाय! अभागिन, नागिन-सी कर उठी वार
प्रभु शिला बन गयी नारी शिर ले शाप-भार
तुम, देव! खोल दो आज हृदय के रुद्ध द्वार
जड़ता नव-जीवन पाये
. . .

'अंतर में जो भी कलुष, पाप, लांछना, व्यथा
सब बनें आज कंचन-सी पारस परस यथा
कैसे कह दूँ मैं, देव! कि जीवन गया वृथा
जब जुड़ी अहल्या के सँग पावन राम-कथा
कल्याणी, मंगलकारी!
 
जलता न हृदय में ग्रीष्म, नयन सावन होते!
क्यों आते जग में राम न जो रावण होते!
होते न पतित तो कहाँ पतित-पावन होते!
प्रभु! चरण तुम्हारे कैसे मनभावन होते
बनती न शिला जो नारी!'
 
दृग से झर-झर आँसू  बरसे, रूँध गया गला
कह सकी न आगे कुछ भी भावाकुल अबला
बोले प्रभु करुणा-सजल, 'अहल्ये! न रो, भला
तू पावन सदा पूर्णिमा की ज्यों चन्द्र-कला,
अब और नहीं तपना है
 
वह क्षणिक हृदय की दुर्बलता, वह पाप-भार
कल का सारा जीवन जैसे बीती बयार
वह देख, आ रहे गौतम, पहला लिए प्यार
अब से नूतन जीवन, नव संसृति में सँवार
जो बीत गया सपना है 
 
रवि-शशि-से मन की चपल वृत्ति में बँधे आप
किसके मानस में उदित न होते पुण्य-पाप!
गिर-गिर कर उठना चेतनता का यही माप
जन-जीवन पर बस उसी पुरुष की पड़ी छाप
जो कभी न दुख से हारा
 
जो तिल-तिल जलता गया, किन्तु बुझ सका नहीं
जो पल-पल लड़ता गया, कष्ट से थका नहीं
जो रुका न पथ पर, भय-विघ्नों से झुका नहीं
जो चूक गया फिर भी निज को खो चुका नहीं
जन वही मुझे है प्यारा
 
जो पीड़ित, लांछित, दीन, दुखी दुर्बल, अनाथ 
चिर-पतित, अपावन, जग में चलते झुका माथ
मैं भक्ति-मुक्ति से भरता उनके रिक्त हाथ
दूँ बहा सृष्टि में प्रेम-जाह्नवी पुण्य-पाथ
बस इसी लिए आया हूँ
 
अब रहा न तेरी पावनता में मीन-मेष
बीती दुख की तम-निशा, सुखों का प्रात देख
मुनि-रोषानल में तप कर निर्मल कनक-रेख,
पढ़ आज, अहल्ये! नूतन जीवन-भाग्य-लेख
जो तेरे हित लाया हूँ’