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भाषा (दो) / रवीन्द्र भारती

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पानी में झूलती धूल-भरी घासों से लगी जड़ों की फुनगियाँ
फिजी, सूरीनाम, मारीशस के आसमान को जो हैं छूतीं
हाँ, उसी की भाषा का घर है।

धरोहर बोलकर ले जाने वाला ऐसा यहाँ कुछ भी नहीं
कुएँ की जगत पर कुछ पुरनियों की पैरों की छाप है —
जिसे न तो दिखाया जा सकता है, न उठाया
गिन्नी, अशर्फ़ी नहीं, हमारे बच्चों के नाम हैं
मिरज़ई, मारकीन, पसीना
कोई बही नहीं, खाता नहीं
हस्तलिखित अक्षरों की परछाइयों में
किसी के पैरों के नीचे से खिसककर आई कोई ज़मीन नहीं
मन की पताका देह में फहरती है
कोई कोठी, अटारी नहीं ।

कुछ भी नहीं है गोपन, कुछ भी नहीं है अनन्त
सलाई की एक तीली की रोशनी में है अपनी दुनिया ।