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भूख / कुलदीप सिंह भाटी

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मानव के दुःख हमेशा से ही
उल्लेखनीय विषय रहे है
कविताओं के।
भूख कुछ इन्हीं विषयों में से
एक ख़ास विषय रहा है
कवियों और उनकी कविताओं का।
आज भी खूब लिखा जाता है
इस भूख के भंवरजाल पर,
इंसानी बस्तियों में
तांडव मचाते इस काल पर,
कुपोषण पर,
शोषण पर।

आज भी खूब मांग है
भूख की
कविता के बाज़ार में।
बैठे है कई
इस भूख को गढ़ने
के इन्तजार में।
भूख पर लिखते-लिखते
अब आदी हो गए हैं
कवि भी इस भूख के।
क्योंकि मानवीय संवेदनाओं के प्रति
असंवेदनशील कई कवि भूखे हैं
वाहवाही के लिए।
मंच, गोष्ठियों और सम्मेलन में
आवाजाही के लिए।

भूख पर
कुछ लिखकर खुश होते है व
बटोरते है श्रोताओं की तालियाँ।
लूट लेते हैं
सुर्खियाँ और तारीफें
इस भयाक्रांत करती भूख को
देकर जैसे गालियाँ।

लगता है कई बार कि
बढ़ गई है अब
इंसानों की भूख से ज्यादा
कवियों और उनकी कविताओं
को इस रसूख
की भूख।

कवि और उसका कवित्त्व
हो गया है अब
कुपोषण का शिकार।
बचाने कवि और कविता को
अब है पोषण की दरकार।