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|रचनाकार = रामधारी सिंह ‘दिनकर’
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'''मंगल-आह्वान'''
 
भावों के आवेग प्रबल
मचा रहे उर में हलचल।
::कहते, उर के बाँध तोड़::स्वर-स्त्रोत्तों में बह-बह अनजान,::तृण, तरु, लता, अनिल, जल-थल को ::छा लेंगे हम बनकर गान।
पर, हूँ विवश, गान से कैसे
कौन रागिनी गाऊँ मैं?
::बाट जोहता हूँ लाचार::आओ स्वरसम्राट ! उदार
पल भर को मेरे प्राणों में
युग-युग के गायन गाओ।
::वे गायन, जिनके न आज तक::गाकर सिरा सका जल-थल, ::जिनकी तान-तान पर आकुल ::सिहर-सिहर उठता उडु-दल।
आज सरित का कल-कल, छल-छल,
पीले पत्तों का मर्मर,
::जलधि-साँस, पक्षी के कलरव,::अनिल-सनन, अलि का गुन-गुन::मेरी वंशी के छिद्रों में::भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।
दो आदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
जागें सुप्त भुवन के प्राण।
::गत विभूति, भावी की आशा, ::ले युगधर्म पुकार उठे,::सिंहों की घन-अंध गुहा में::जागृति की हुंकार उठे।
जिनका लुटा सुहाग, हृदय में
की कोयल रो कूक उठे।
::प्रियदर्शन इतिहास कंठ में::आज ध्वनित हो काव्य बने, ::वर्तमान की चित्रपटी पर::भूतकाल सम्भाव्य बने।
जहाँ-जहाँ घन-तिमिर हृदय में
देव ! फूँक दो चिनगारी।
::ऐसा दो वरदान, कला को ::कुछ भी रहे अजेय नहीं,::रजकण से ले पारिजात तक::कोई रूप अगेय नहीं।
प्रथम खिली जो मघुर ज्योति
नभ-दीपों, वनफूलों में;
::सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी::विभा यहाँ फैलाते हैं,::जिसके बुझे कणों को पा कवि::अब खद्योत कहाते हैं;
उसकी विभा प्रदीप्त करे