भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मच रहे क्यों आज हाहाकार हैं, / राजरानी देवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मच रहे क्यों आज हाहाकार हैं,
अब नृशंसों के महाउत्पात पर?
क्या न अब कुछ देश का अभिमान है?
खो गई सुखमय सभी स्वाधीनता।
हो रहा कितना अधिक अपमान है?
समुद इसको कौन सकता है बता?
नव-हरिद्रा-रंग-रंजित अंग में,
सर्वदा सुख में तुम्हीं लवलीन हो।
ग्रन्थि-बन्धन के अनूप प्रसंग में,
दूसरे ही के सदा अधीन हो।
बस तुम्हारे हेतु इस संसार में,
पथ-प्रदर्शक अब न होना चाहिये।
सोच लो संसार के कान्तार में,
बद्ध होकर यदि जिये तो क्या जिये?
कर्म के स्वच्छन्द सुखमय क्षेत्र में,
किंकिणी के साथ भी तलवार हो।
शौर्य हो चंचल तुम्हारे नेत्र में,
सरलता का अंग पर मृदु-भार हो।
सुखद पतिब्रत धर्म-रथ पर तुम चढ़ो,
बुद्धि ही चंचल अनूप तुरंग हो।
हार पहनो तो विजय का हार हो,
दुन्दुभी यश की दिगन्तों में बजे।
हार हो तो बस यही व्यवहार हो,
तन चिता पर नाश होने को सजे।
मुक्त फणियों के सदृश कच-जाल हों।
कामियों को शीघ्र डसने के लिए।
अरुणिमायुत हाथ उनके काल हों,
सत्य का अस्तित्व रखने के लिए।