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मज़दूर औरत / अशोक तिवारी

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मज़दूर औरत

एक औरत
जिसने नहीं पढ़ी है कोई कविता
नहीं जाना है कविता का महत्त्व
नहीं समझा है कविता का
अनुपम संसार
उसका समूचा जीवन
ख़ुद एक कविता है मगर
उस औरत के घूँघट के अंदर का चेहरा
यक़ीनन बहुत कुछ कहता है
जो बहुमंज़िली इमारत को बनाने के लिए
अपने सास-ससुर और जेठ के साथ
काम पर आई है
सुबह मुँह-धुँधलके में
रोटी बनाई है
खाई है, खिलाई है
दो रोटी मैले कपड़े में
बाँधकर लाई है
बच्चे को सँभाला है
पति को एक और काम पर निकाला है

काम पर निकल आई
वह खुदाई करती है
मिट्टी ढोती है
गारा बनाती है
ईंटें उठाती है
मगर उसकी निगाह
रहती है बच्चे पर बराबर
वह लेटा है बालू के ढेर पर

रेत में कुलेलें करता
बालक ईंट उठा-उठाकर
घर बनाता है
कभी रोता है तो
कभी खिलखिलाता है
राल बह रही है उसकी
वह दूर से देख-देखकर ख़ुश होती है
मगर ठेकेदार के डर से
अपने हाथों की तेज़ी को बरकरार रखती है
उसका अंतर्मन कहीं
गहरे में उसके दिमाग़ पर चोट करता है
जो कहता है कि इस बालक को
मालूम नहीं है
ईंटें जमाने का मतलब
घर खड़ा करने का अर्थ
बरसात में चूती झोंपड़ी का घर
मन में कौंध जाता है उसके
वह सर झटक देती है झट से

मालिक आ गया है
वह ठेकेदार पर बरस रहा है
ठेकेदार-मिस्त्री पर
मिस्त्री-मज़दूरों पर
वह तसले में और ज़्यादा बोझ लादती है
अपनी ईमानदारी का
कोई सबूत दे पाए शायद
तेज़ चाल से चलकर
भरा तसला पकड़ाती है अपने जेठ को

मगर खाली तसला लेते हुए
सोचती है वो इस बार
लड़का होगा या लड़की
लड़का हो - उसका अंतर्मन कहता है
मगर लड़की वो वाकई चाहती है
उसका सातवाँ महीना है उसका
काम से लौटते हुए
कल शाम भूख में
बालक ने दीवारों को खरोंचा था
उसने महसूस किया था
कोई भी हो
मगर उसका मन करता है
ऐसे बालक को जन्म देने का
जो उसका अपना साथ दे
उसका मन
घूँघट से निकलकर
बाहर ठेकेदार से टक्कर लेने को करता है
कि क्यों पिस-पिसकर
घिस-घिसकर काम करने के बावजूद
मज़दूरी नहीं मिल पाती
भरपेट रोटी के लिए
बराबर और ज़्यादा काम करने के बाद भी
उसे कम मज़दूरी क्यों मिलती है आदमियों से।
उसका मन चाहता है
इन सवालों के जवाब
कि क्यों करते हैं
उसके जेठ और ससुर
उसकी मज़दूरी का सौदा
उसे पसंद नहीं है -
उसके काम का मोल कोई और करे-

अपनी इस असमर्थता पर
वह लज्जित नहीं, कुंठित है

ईंटों को ऊपर की मंज़िल पर
उछालते हुए
वह अपनी सीमा को
आँकना चाहती है कई बार
वह आसमान में
कितना ऊपर फेंक सकती है पत्थर
उसकी ललक है
आसमान के अंतिम छोर को
अपने पत्थर से छूने की
उसे वाजिब मज़दूरी की तलाश है
वह थकान से चूर-चूर होकर रखती है
वापस अपने घर की देहरी पर जब क़दम
उसके शरीर की थकान
मन की थकान पर होती है भारी
वो थककर चूर-चूर हो जाना चाहती है
मन से भी
मगर कोई नहीं
जिसे उसके काम की तलाश हो
खोना नहीं चाहती वो भीड़ में
मगर खो जाती है।

रात की गरमाहट में
पति के साथ बतियाते हुए
कई बार लगता है उसे
बेकार हो रही ऊर्जा पर
बात करना
बेमानी है
बेमतलब है
वो एकटक निहारती है
झौंपड़पट्टी के फूँस को
सहलाती है एक हाथ से
पास सो रहे बच्चे को
और दूसरे से
अपने भविष्य के सपने को
जिस पर छोड़ दिया उसने सब कुछ!!