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"मना लूँ मन को तो सजनी / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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|रचनाकार=गुलाब खंडेलवाल
 
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विन्ध्याचली—
 
मना लूँ मन को तो, सजनी!
 
जीवनधन के बिना कटे क्योंकर पावस की रजनी!
 
तप करने निकले मनमोहन, वन के भाग्य जगे री
 
सूनी सेज पड़ी, ऐसे नंदन में आग लगे री
 
सजनी तुझको रामदुहाई, उनसे कह दे जाकर
 
धूनी बनी विरहिनी जल-जल, से लें घर ही आकर
 
योगीश्वर कहलाते शंकर उमा-अधर-रस-भोगी
 
जो वियोग की पीर समझते वे हैं सच्चे योगी
 
<poem>
 

02:46, 21 जुलाई 2011 के समय का अवतरण