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मनीषा पञ्चकं / मृदुल कीर्ति

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ओइम
मनीषा पञ्चकं
आदि गुरु शंकराचार्य विरचित

संत महत क्यों कहत हो, परे हटो तुम जाय?
कैसे आपु को आपु से, कोई सकै बिलगाय?
दोनों की ही अन्नमय, देह न अंतर कोय,
परम ब्रह्म एकहि बसे, ब्रह्म कहाँ दुइ होय ?


सब घट बसहिं ब्रह्म एक एका, तुमहिं कदाचित दिखत अनेका.
तबहीं 'दूर हट' कहत हो संता, नाहीं कदाचित लखत अनंता.
माटी घट या कनक कटोरा, रवि प्रतिबिम्ब एक बहु ओरा.
जब लौं 'तू' 'मैं' भाव न जाई, ब्रह्म कबहूँ नहीं परत दिखाई.


जाग्रत्स्वप्न सुषुत्पिषु स्फुटतरा या संविदुज्जृम्भते
या ब्रह्मादि पिपीलिकान्त तनुषु प्रोता जगत्साक्षिणी,
सैवाहं न च दृश्य वस्त्विति दृढ प्रज्ञापि यस्यास्तिचे
च्चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ १ ॥


जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था, किंचन से ले जगत व्यवस्था,
तत्व, सत्व, अस्तित्व प्रमाना, ब्रह्म तत्व सब जीव समाना.
जो कछु दिखत, न परत दिखाई, स्पंदित प्रभु की प्रभुताई.
जब सब मांही ब्रह्म समाना, कथ, द्विज बढ़, हम लगत अयाना ॥ १ ॥


ब्रह्मैवाहमिदम् जगच्छ सकलं चिन्मात्र विस्तारितम्
सर्वं चैतदविद्यया त्रिगुणया सेषम् मया कल्पितं,
इथ्थं यस्य दृध मतिस्सुखतरे नित्ये परे निर्मलेः
च्चण्डालोस्तु स तु द्विजोस्तु गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ २ ॥


ब्रह्म तत्व सब मांही समाना, को बढ़ कैसे, कौन अयाना?
सबके अंतस ब्रह्म अनंता, एक नियामक, एक नियंता.
सत, रज, तम गुण कारण मूला, भ्रमित ज्ञान, अज्ञान समूला.
भेद दृष्टि दुइ परत दिखाई, दोष दृष्टि की यह लघुताई ॥ २ ॥


शश्वन्नश्वरमेव विश्वमखिलं निश्चित्य वाचागुरोरः
नित्यं ब्रह्म निरन्तरं विमृशता निर्व्याज शान्तात्मना,
भूतं भावि च दुष्कृतं प्रदहता संविन्मये पावके
प्रारब्धाय समर्पितं स्ववपुरित्येषा मनीषा मम ॥ ३ ॥


गुरु वचना विश्वास अगाधा, क्षणिक जगत, माया बहु ब्याधा,
प्रभु सुमिरन , प्रभु में नित नेहा, जाके हेतु मनुज की देहा.
बिनु संशय, जिन निरत उपासे, तिन प्रारब्धा करम विनासे.
करम विपाक होत अस रूपा, ब्रह्म नित्य हिय रहत अरूपा ॥ ३ ॥


या तिर्यङ्नरदेवताभिरहमित्यन्तः स्फुटा गृह्यते
यद्भासा हृदयाक्षदेहविषया भान्ति स्वतो चेतनाः,
ताम् भास्यैः पिहितार्कमण्डलनिभां स्फूर्तिं सदा भावय
न्योगी निर्वृतमानसो हि गुरुरित्येषा मनीषा मम ॥ ४ ॥


बसत सच्चिदानंद नियंता, जिनके हिय परब्रह्म अनंता,
जासु कृपा से जग संचालन, सकल सृष्टि संरक्षक, पालन.
बादल सों जस रवि ढक जाई, तस बिनु ज्ञान ना परत दिखाई.
वे योगी अतिशय मह्ताई, ब्रह्म मर्म जिन होत जनाई ॥ ४ ॥


यत्सौख्याम्बुधि लेशलेशत इमे शक्रादयो निर्वृता
यच्चित्ते नितरां प्रशान्तकलने लब्ध्वा मुनिर्निर्वृतः
यस्मिन्नित्य सुखाम्बुधौ गलितधीर्ब्रह्मैव न ब्रह्मविद्
यः कश्चित्स सुरेन्द्रवन्दितपदो नूनं मनीषा मम ॥ ५ ॥


आत्म बोध जेहि जन चित होई, स्वयं ही ब्रह्म सरूपा सोई .
पूर्ण-काम परिपूरन जानो, ब्रह्म स्वयं तस जन, अस जानो.
देवहूँ जिनके चरण पखारें, ब्रह्म भाव से ताहि निहारें.
ब्रह्म तत्व, परिपूर्ण महाना, स्वयं ब्रह्मविद , ब्रह्म समाना ॥ ५ ॥




देह रूप प्रभु दास तुम्हारा,
जीव रूप प्रभु अंश तुम्हारा.
आत्म रूप तुम संग हमारे,
सार तत्व, जानत बुधवारे.


मनीषा पञ्चकं सम्पूर्णं