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मनुष्यता पहाड़ ही ढोती / लाला जगदलपुरी

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भोर के हंस चुग गए मोती,
बैठ कर तमिस्त्रा कहीं रोती ।

मौत बेवक़्त भला क्यों आती ?
ज़िन्दगी यदि ज़हर नहीं बोती ।

अस्मिता चिंतन की हरने को,
चिंता रात भर नहीं सोती ।

आदमी व्यक्त जब नहीं होता,
चेतना, चेतना नहीं होती ।

वक़्त बदले कि व्यवस्था बदले
मनुष्यता, पहाड़ ही ढोती ।