भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मनुष्यता / मैथिलीशरण गुप्त" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
+
विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸
  
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
+
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।
  
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
+
हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸
  
 +
नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।
  
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
+
यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸
  
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
+
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
  
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।
 
  
 +
उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸
  
सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
+
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।
  
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
+
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;
  
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
+
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।
  
 +
अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸
  
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
+
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।
  
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
 
  
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
+
सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;
  
 +
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।
  
\"मनुष्य मात्र बन्धु है\" यही बड़ा विवेक है¸पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
+
विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸
  
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
+
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?
  
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
+
अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸
  
 +
वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
  
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
 
  
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
+
अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸
  
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸वही मन्ुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
+
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।
 +
 
 +
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸
 +
 
 +
अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।
 +
 
 +
रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸
 +
 
 +
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
 +
 
 +
 
 +
"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸
 +
 
 +
पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।
 +
 
 +
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸
 +
 
 +
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।
 +
 
 +
अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸
 +
 
 +
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।
 +
 
 +
 
 +
चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸
 +
 
 +
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।
 +
 
 +
घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸
 +
 
 +
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।
 +
 
 +
तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸
 +
 
 +
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।

18:05, 7 अगस्त 2007 का अवतरण

विचार लो कि मत्र्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸

मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी।

हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸

नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए।

यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸

उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती।

उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती;

तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती।

अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।।


सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही;

वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही।

विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸

विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸

वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸

समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े।

परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸

अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी।

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


"मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸

पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है।

फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸

परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं।

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।


चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸

विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए।

घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸

अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी।

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।।