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मन-रंग–2 / अपर्णा अनेकवर्णा

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अँचरा भर खोइँछा
मन भर आशीष
कण्ठ में ऐंठ गए
रुँधे घुटते विदा-गीत .

पीतल के लोटे में हाथ भिगोए..
आँगन में छूटती जाती माँ..

मैं कातर..
बस उसे मुड़ कर ताकती हूँ...
सब धीरे से धुन्धला जाता है

बस उसी समय चढ़ता है वो रंग..
तब से बस गहराता चला जाता है...

वही मन का स्त्री-रंग कहलाता है..