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मन करता है अजब तमाशा / सरोज मिश्र

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उनके घर में उजला सूरज,
गांव हमारे घना कुहासा!
रूठी नीदें पीड़ित सपने
खण्ड खण्ड जीवन परिभाषा!
देता रहता फिर भी आशा, मन करता है अजब तमाशा!

तुम तो पीड़ा के गायक हो सुख तुमको भरमायेंगे!
आयु फूल की छोटी कांटे जीवन भर सहलायेंगे!
पतझर को बगिया का माली,
देता रहा यही इक झांसा!
ना यह बोला ना वह समझा,
गूंगी इच्छओं की भाषा!
देता रहता फिर भी आशा, मन करता है अजब तमाशा!

एक माह में चार व्रतों का प्रजा हेतु आदेश लिखा!
उन्हें नियम से छूट है जिनके, आगे व्यक्ति विशेष लिखा!
पत्थर का ये देव न जाने
कितना भूखा कितना प्यासा!
रोज हमे देहरी तक जाना,
रोज चढ़ाना दूध बतासा!
देता रहता फिर भी आशा, मन करता है अजब तमाशा!

लम्बे चौड़े थे पहले से, अब तो हद से गहरे भी!
उस पर उनके सभी सभासद, अन्धे गूंगे बहरे भी!
लेकर चले द्वार से उनके,
जब हम अपना फूटा ताशा!
 पलट-पलट कर देख रही थी,
 राजमहल को गहन निराशा!
देता रहता फिर भी आशा, मन करता है अजब तमाशा!