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मन का मिलन/रमा द्विवेदी

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यह माना नहीं है,
हुनर कोई मुझमें,
मगर एक दिल था ,
तुम्हें दे दिया है।

नहीं रूपसी मैं,
न तन की अदाएं,
मगर एक मन था ,
तुम्हें दे दिया है।
  
न बंधन रिवाजों के,
न कोई सनद ही,
यह दिल का मिलन था,
तुम्हें दे दिया है।
  
न की अर्चनाएं ,
न अग्नि के फेरे,
मगर इक वचन था,
तुम्हें दे दिया है।
  
न भाषा नयन की,
न शब्दों की लडियां,
मगर मौन इक था,
तुम्हें दे दिया है।
  
न देखे थे सपने ही,
कोई महल के,
मगर इक स्वपन था,
तुम्हें दे दिया है।