भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मन के पास रहो / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:40, 2 जनवरी 2024 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रमानाथ अवस्थी |अनुवादक= |संग्रह=आ...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तन की दूरी क्या कर लेगी
मन के पास रहो तुम मेरे

देख रहा हूँ मैं धरती से
दूर बहुत है चान्द बिचारा
किन्तु कहा करता है मन की
बातें वह किरणों के द्वारा

सपना बन कुल रात काट दो
चाहे जाना चले सवेरे

चिन्ता क्या मैं करूँ तुम्हारी
ख़ुद को ही जब बना न पाया
सच पूछो तो मन बहलाने
को ही कुछ गीतों को गाया

याद नहीं मेरे नयनों के
कितने आँसू गीत बने रे
जीवन से मैं खेल खेलता
और प्राण का दाँव लगाता

मेरी ही बिगड़ी मिट्टी से
मूर्ति बनाता नई विधाता
मुझ जेसे को डर ही क्या है
मरण मुझे कितना ही घेरे