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मन दर्पण / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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रजत चाँदनी की किरणों से घायल मेरा मन दर्पण।
जीवन के बाकी क्षण उसकी यादों को करता अर्पण।

नेति नेति कह वेद थक गये, कितने व्यास हो गये शेष,
कौन कर सका इस धरती पर ठीक ठीक सच का वर्णन ?

रहा तरसता जीवन भर जीवन अपनापन पाने को
अब मरने के बाद हरे रहे ब्रह्मभोज सौ सौ तर्पण।

असली सूरत दिखलसदी जो पतझारों ने दुनिया की
फिर भी टूट कहाँ पाया है मन का भौतिक आकर्षण।

जिन्हें कर्म से भय लगता है वे करते हैं भिक्षाटन
प्रतिभाओं को रोक नहीं जाता है कोई आरक्षण।

शुष्क हो गया है जन जीवन मरूस्थली सा युग लगता।
कहाँ रह गया है कविता में पहले जैसा रस वर्षण।

बदल गये जब पंथ हमारे भिन्न हो गये लक्ष्य सभी
क्यों चल रहा व्यर्थ में अब तक पत्रों का है सम्पे्रषण  ?

नयी नयी गतिविधियाँ का जब विस्तारण हरपल होता
आखिर क्यों फिर नित्य हो रहा मानवता का संक्षेपण ?