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अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त,
और हर मसूम मासूम टहनी पर फलों का बार भार था|
देखते ही देखते शहरों की रौनक़ बन गया,
कल यही चेहरा था जो हर आईने पे बार भार था|
सब के दुख सुख़ उस के चेहरे पे लिखे पाये गये,
अब मोहल्ले भर के दरवाज़ों पे दस्तक है नसीब,
एक ज़माना था के कि जब मैं भी बहुत ख़ुद्दार था|
काग़ज़ों की सब सियाही बारिशों में धुल गई,
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