भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महानगर का गीत / चंद ताज़ा गुलाब तेरे नाम / शेरजंग गर्ग
Kavita Kosh से
मोह सभी धुँधुआते सागर में डूब गए
दर्द उगे नए नए
हँस-हँस कर रोते हैं, रो-रोकर हँसते हैं!
आभासित इधर-उधर भरमाता जाल-सा
एक किरण खोज रही जीने की लालसा
श्यामलता झलक गई हर उजले रंग में
भीग कर उमंग में
केवल औपचारिकता बाँहों में कसते हैं,
हँस-हँस कर रोते हैं, रो-रोकर हँसते हैं।
प्यार एक ग़लती था गाँव की भुला देंगे
जागेगा अगर गला घोंटकर सुला देंगे
बात तनिक खास नहीं, अपनों से शंकित हैं
खुद से आतंकित हैं
मित्र बहुत दूर, बहुत दूर कहीं बसते हैं,
हँस-हँस कर रोते हैं, रो-रोकर हँसते हैं।