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महाप्रलय / मनोज श्रीवास्तव

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महाप्रलय

क्या होगा
जब सूरज
सर्द होकर
आसमान में
जम जाएगा,
तड़पती किरणें
उसके सीने में
दुबक कर
सुबक कर
मर जाएँगी,
ठिठुरती गरमी
तपती ठण्ड में
तब्दील होकर
झुलसा देगी
वह सब कुछ
जो स्पंदित है
जीवंत उच्छवास से
या, किसी तरह,
और छोड़ जाएगी
शिव के
अट्टहास तांडव से
झूमते-लरजते
शेषनाग के मस्तक पर
हिचकोलें खा रही
लुप्तप्राय धरती के ऊपर
प्रलयसूचक
स्खलित भ्रंशों का
बदसूरत आसमान?

धूप में
रचे-बसे
सात रंग
ठण्ड से अकड़कर
स्याह पड़ जाएंगे
और छोड़ जाएंगे
कालकवलित अंतरिक्ष के
अधखुले-बस्साते
ओजोन-शून्य मुख में
काले-कत्थई
खून के चकत्ते

क्या होगा
जब रोशनी
बिलख-बिलख
थक-छक कर
अनबरसते
तेजाबी बादलों पर
सिर रख कर
सोने की कोशिश में
मरने तलक
कोमा में चली जाएगी
और तथाकथित मेघ के
कंधों से
शव-सरीखे झूलते
रोशनी-शिशुओं के
घोर काले ब्यालों जैसे
भुतहे-रेडियमी हाथ
खौफज़दा धरती को
चतुर्दिक
लटक-चिपट कर
जकड़ देंगे
ताकि कहीं से
किसी भी सूरत में
सृजन की गुंजाइश
न रह जाए?

क्या होगा
जब धारदार जाल जैसे
ठोस हो गई हवा के
रेतीले रेशे
आसमान के आरपार
हमेशा के लिए
बिछ जाएंगे
जिन्हें समय भी
बुहार नहीं पाएगा?

तब, समय के
ताने-बाने पर ठहरे
अस्तित्त्व-अनास्तित्त्व
स्वप्न, अतीत-बोध
की संकल्पनाएँ
अशेष रह जाएँगी,
भौतिक-अभौतिक में
भेद मिट जाएगा.