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"महाबलिपुरम् / हरिवंशराय बच्चन" के अवतरणों में अंतर

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कौन कहता
 
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कल्पना
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सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्तेज औ'
 
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निस्ताप होती?
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मैं महाबलीपुरम में
 
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सागर किनारे पड़ी
 
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औ' कुछ फ़ासले पर खड़ी चट्टानें
 
औ' कुछ फ़ासले पर खड़ी चट्टानें
 
 
चकित दृग देखता हूँ
 
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और क्षण-क्षण समा जाता हूँ उन्हीं में
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और जब-जब निकल पाता,
 
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पूछता हूँ--
 
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कौन कहता
 
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सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्तेज औ'
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निस्ताप होती?
  
कल्‍पना
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वर्ष एक सहस्त्र से भी अधिक बीते
 
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कल्पना आई यहाँ थी
सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्‍तेज औ'
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पर न सागर की तरेगें
 
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औ'
 
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न लहरे बादलों के
 
न लहरे बादलों के
 
 
औ' न नोनखारे झकोरे सिंधु से उठती हवा के
 
औ' न नोनखारे झकोरे सिंधु से उठती हवा के
 
 
धो-बहा पाए,
 
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उड़ा पाए
 
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पड़े पद-चिह्न उसके पत्थरों पर...
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औ' मिटा भी नहीं पाएँगे
 
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भविष्यत् में
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जहाँ तक मानवी दृग देख पाते।
 
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कल्पना आई यहाँ पर,
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और उसके दृग-कटाक्षों से
 
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लगे पाषाण कटने-
 
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कलश, गोपुर, द्वार, दीर्घाएँ,
 
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गवाक्ष, स्तंभ, मंडप, गर्भ-गृह,
गवाक्ष, स्‍तंभ, मंडप, गर्भ-गृह,
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मूर्तियाँ और फिर मूर्तियाँ, फिर मूर्तियाँ
 
मूर्तियाँ और फिर मूर्तियाँ, फिर मूर्तियाँ
 
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उनमुक्त निकालीं
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बंद अपने में युगों से जिन्हें
 
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चट्टानें किए थीं-
 
चट्टानें किए थीं-
 
 
मूर्तियाँ जल-थल-गगन के जंतु-जीवों,
 
मूर्तियाँ जल-थल-गगन के जंतु-जीवों,
 
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मानवों की, यक्ष-युग्मों की अधर-चर,
मानवों की, यक्ष-युग्‍मों की अधर-चर,
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काव्य और पुराण वर्णित
 
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काव्‍य और पुराण वर्णित
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देवियों की, देवताओं की अगिनती-
 
देवियों की, देवताओं की अगिनती-
 
 
विफल होती,
 
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शीश धुनती।
 
शीश धुनती।
 
  
 
यहाँ वामन बन त्रिविक्रम
 
यहाँ वामन बन त्रिविक्रम
 
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नापते त्रैलोक्य अपने तीन डग में,
नापते त्रैलोक्‍य अपने तीन डग में,
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और आधे के लिए बलि
 
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देह अपने प्रस्तुत कर रहे हैं।
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यहाँ दुर्गा
 
यहाँ दुर्गा
 
 
महिष मर्दन कर
 
महिष मर्दन कर
 
 
विजयिनी का प्रचंडकार धारे।
 
विजयिनी का प्रचंडकार धारे।
 
 
एक उँगली पर यहाँ पर
 
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कृष्ण गोवर्धन सहज-नि:श्रम उठाए
कृष्‍ण गोवर्धन सहज-नि:श्रम उठाए
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तले ब्रज के गो-गोप सब शरण पाए,
 
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औ' भगीरथ की तपस्या यहाँ चलती है कि
औ' भगीरथ की तपस्‍या यहाँ चलती है कि
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सुरसरि बहे धरती पर उतरकर,
 
सुरसरि बहे धरती पर उतरकर,
 
 
सगर के सुत मुक्ति पाएँ।
 
सगर के सुत मुक्ति पाएँ।
 
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उग्र यह कैसी तपस्या और संक्रमक
उग्र यह कैसी तपस्‍या और संक्रमक
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कि वन में हिंस्र पशु भी
 
कि वन में हिंस्र पशु भी
 
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ध्यान की मुद्रा बनाए।...
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और बहुत कुछ धुल गया संस्कार बनकर
 
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जो हृदय में
 
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शब्द वह कैसे बताए!
शब्‍द वह कैसे बताए!
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सोचता हूँ,
 
सोचता हूँ,
 
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कौन शिल्पी
कौन शिल्‍पी
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किस तरह की छेनियाँ, कैसे हथौड़े लिए,
 
किस तरह की छेनियाँ, कैसे हथौड़े लिए,
 
 
कैसी विवशता से घिरे-प्रेरे
 
कैसी विवशता से घिरे-प्रेरे
 
 
यहाँ आए होंगे
 
यहाँ आए होंगे
 
 
औ' रहे होंगे जुटे कितने दिनों तक-
 
औ' रहे होंगे जुटे कितने दिनों तक-
 
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दिन लगन, श्रम स्वेद के, संघर्ष के
दिन लगन, श्रम स्‍वेद के, संघर्ष के
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शायद कभी संतोष के भी-
 
शायद कभी संतोष के भी-
 
 
काटते इन मूर्तियों को,
 
काटते इन मूर्तियों को,
 
 
नहीं-
 
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अपने आप को ही।
 
अपने आप को ही।
  
 
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देखने की वस्तु तो
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इनसे अधिक होंगे वही,
 
इनसे अधिक होंगे वही,
 
 
पर वे मिले
 
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इस देश के इतिहास में,
 
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इसकी अटूट परंपरा में
 
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और इसकी मृत्तिका में
 
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जो कि तुम हो,
 
जो कि तुम हो,
 
 
जो कि मैं हूँ।
 
जो कि मैं हूँ।
 
 
लग रहा
 
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पाषाण की कोई शिला हूँ
 
पाषाण की कोई शिला हूँ
 
 
और मुझ
 
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पर छेनियाँ रख-रख अनवरत
 
पर छेनियाँ रख-रख अनवरत
 
 
मारता कोई हथौड़ा
 
मारता कोई हथौड़ा
 
 
और कट-कट गिर रहा हूँ...
 
और कट-कट गिर रहा हूँ...
 
 
जानता मैं नहीं
 
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मुझको क्या बनाना चाहता है
मुझको क्‍या बनाना चाहता है
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या बना पाया अभी तक।
 
या बना पाया अभी तक।
 
 
मैं कटे, बिखरे हुए पाषाण खंडों को
 
मैं कटे, बिखरे हुए पाषाण खंडों को
 
 
उठाकर देखता हूँ-
 
उठाकर देखता हूँ-
 
 
अरे यह तो 'हलाहल', 'सतरंगिनी' यह;
 
अरे यह तो 'हलाहल', 'सतरंगिनी' यह;
 
 
देखता हूँ,
 
देखता हूँ,
 
 
वह 'निशा-संगीत',...'खेमे में चार खूँटी';
 
वह 'निशा-संगीत',...'खेमे में चार खूँटी';
 
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क्या अजीब त्रिभंगिमा इस भंगिमा में!
क्‍या अजीब त्रिभंगिमा इस भंगिमा में!
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'आरती' उलटी, 'अँगारे ' दूर छिटके';
 
'आरती' उलटी, 'अँगारे ' दूर छिटके';
 
 
यह 'मधुबाला' बिलुंठित;
 
यह 'मधुबाला' बिलुंठित;
 
 
धराशायी वहाँ 'मधुशाला' कि चट्टानी पड़ीं दो-
 
धराशायी वहाँ 'मधुशाला' कि चट्टानी पड़ीं दो-
 
 
आँख से कम सुझता अब-
 
आँख से कम सुझता अब-
 
 
उस तफ़ 'मधुकलश' लुढ़के पड़े रीते;
 
उस तफ़ 'मधुकलश' लुढ़के पड़े रीते;
 
 
'तुम बिन जिअत बहुत दिन बीते'।
 
'तुम बिन जिअत बहुत दिन बीते'।
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</poem>

22:23, 28 जुलाई 2020 के समय का अवतरण

कौन कहता
कल्पना
सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्तेज औ'
निस्ताप होती?
मैं महाबलीपुरम में
सागर किनारे पड़ी
औ' कुछ फ़ासले पर खड़ी चट्टानें
चकित दृग देखता हूँ
और क्षण-क्षण समा जाता हूँ उन्हीं में
और जब-जब निकल पाता,
पूछता हूँ--
कौन कहता
कल्पना
सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्तेज औ'
निस्ताप होती?

वर्ष एक सहस्त्र से भी अधिक बीते
कल्पना आई यहाँ थी
पर न सागर की तरेगें
औ'
न लहरे बादलों के
औ' न नोनखारे झकोरे सिंधु से उठती हवा के
धो-बहा पाए,
उड़ा पाए
पड़े पद-चिह्न उसके पत्थरों पर...
औ' मिटा भी नहीं पाएँगे
भविष्यत् में
जहाँ तक मानवी दृग देख पाते।

कल्पना आई यहाँ पर,
और उसके दृग-कटाक्षों से
लगे पाषाण कटने-
कलश, गोपुर, द्वार, दीर्घाएँ,
गवाक्ष, स्तंभ, मंडप, गर्भ-गृह,
मूर्तियाँ और फिर मूर्तियाँ, फिर मूर्तियाँ
उनमुक्त निकालीं
बंद अपने में युगों से जिन्हें
चट्टानें किए थीं-
मूर्तियाँ जल-थल-गगन के जंतु-जीवों,
मानवों की, यक्ष-युग्मों की अधर-चर,
काव्य और पुराण वर्णित
देवियों की, देवताओं की अगिनती-
विफल होती,
शीश धुनती।

यहाँ वामन बन त्रिविक्रम
नापते त्रैलोक्य अपने तीन डग में,
और आधे के लिए बलि
देह अपने प्रस्तुत कर रहे हैं।
यहाँ दुर्गा
महिष मर्दन कर
विजयिनी का प्रचंडकार धारे।
एक उँगली पर यहाँ पर
कृष्ण गोवर्धन सहज-नि:श्रम उठाए
तले ब्रज के गो-गोप सब शरण पाए,
औ' भगीरथ की तपस्या यहाँ चलती है कि
सुरसरि बहे धरती पर उतरकर,
सगर के सुत मुक्ति पाएँ।
उग्र यह कैसी तपस्या और संक्रमक
कि वन में हिंस्र पशु भी
ध्यान की मुद्रा बनाए।...
और बहुत कुछ धुल गया संस्कार बनकर
जो हृदय में
शब्द वह कैसे बताए!

सोचता हूँ,
कौन शिल्पी
किस तरह की छेनियाँ, कैसे हथौड़े लिए,
कैसी विवशता से घिरे-प्रेरे
यहाँ आए होंगे
औ' रहे होंगे जुटे कितने दिनों तक-
दिन लगन, श्रम स्वेद के, संघर्ष के
शायद कभी संतोष के भी-
काटते इन मूर्तियों को,
नहीं-
अपने आप को ही।

देखने की वस्तु तो
इनसे अधिक होंगे वही,
पर वे मिले
इस देश के इतिहास में,
इसकी अटूट परंपरा में
और इसकी मृत्तिका में
जो कि तुम हो,
जो कि मैं हूँ।
लग रहा
पाषाण की कोई शिला हूँ
और मुझ
पर छेनियाँ रख-रख अनवरत
मारता कोई हथौड़ा
और कट-कट गिर रहा हूँ...
जानता मैं नहीं
मुझको क्या बनाना चाहता है
या बना पाया अभी तक।
मैं कटे, बिखरे हुए पाषाण खंडों को
उठाकर देखता हूँ-
अरे यह तो 'हलाहल', 'सतरंगिनी' यह;
देखता हूँ,
वह 'निशा-संगीत',...'खेमे में चार खूँटी';
क्या अजीब त्रिभंगिमा इस भंगिमा में!
'आरती' उलटी, 'अँगारे ' दूर छिटके';
यह 'मधुबाला' बिलुंठित;
धराशायी वहाँ 'मधुशाला' कि चट्टानी पड़ीं दो-
आँख से कम सुझता अब-
उस तफ़ 'मधुकलश' लुढ़के पड़े रीते;
'तुम बिन जिअत बहुत दिन बीते'।