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यह विचित्र परिपाटी,
पुरूष पूत है लोहा पक्का
वह कुम्हार की माटी , ’बूँद 'बूँद पड़े पर गल जायेगी’
यही सोचकर बढ़ती,
इसीलिए वह सदा साथ में
यही पाठ पढ़ पाती,
भाई लालटेन
बहना ढिवरी की इक बाती ,
’फूँक लगे पर बुझ जाये’
वह इसी सोच में पलती ,
ठोस बड़ी कन्दील सरीखी
बूँद-बूँद सी गलती
प्याले शीशे पत्थर के वे,
वह माटी का कुल्हड़ ,
उसके जूठे होने का
हर वक्त मनाएँ हुल्लड़
सदा हुई भयभीत पुरूष से,
पुरूष ओट वह रखती ,
सीता-सी, रावण-पुरूषों के
बीच सदा तृण रखती।
</poem>
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