भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ, मुझको यह जग प्यारा है / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ! यह जग कितना प्यारा है!

मन करता है, यहीं रहूँ मैं,
रस की बातें सुनूँ, कहूँ मैं;
सुख की वर्षा, दुख का जाड़ा,
श्रम की गरमी सभी सहूँ मैं;
सुबह, शाम, चाँदनी, दुपहरी
ऐसी और कहाँ कारा है?

छूटकर भी कब मुक्‍ति मिलेगी?
वही दंड की उक्‍ति मिलेगी;
इससे तो बदतर ही होगी
और कहीं जो मुक्‍ति मिलेगी;
पानी की क्या कमी, कहीं, पर
नीर कहाँ ऐसा खारा है?

यहाँ बदलता रहता है मुख;
आँखें भी जो दे जातीं दुख;
स्थिरता में भी अस्थिरता;
अस्थिर क्षण दे जाते चिर सुख;
ऋतुओं वस्त्र बदलनेवाला
यह जहान सचमुच न्यारा है!