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माँ के लिए मिटा मेरा तन (मुक्तक) / शंकरलाल द्विवेदी

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मर तो रहा; किन्तु गौरव है माँ के लिए मिटा मेरा तन।
रह-रह कर उस के दुलार की सुधियाँ मन पर छा जातीं हैं।।
ठहरो कुछ कर लो, लेकिन तुम मेरा देश ग़ुलाम न कहना-
क्योंकि अभी मेरे तन में कुछ, साहस की साँसें बाक़ी हैं।।