माँ बूढी़ है / कविता वाचक्नवी
झुककर
अपनी ही छाया के
पाँव खोजती
माँ के
चरणों में
नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले ;
कमरे से आँगन तक आकर
बूढ़ी काया
कितना ताक-ताक सोई थी,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँख, इकहरी काया
कितना काँप-काँप रोई थी।
बच्चों के अपने बच्चे हैं
दूर ठिकाने
बहुओं को घर-बाहर ही से फुर्सत कैसे
भाग-दौड़ का उनका जीवन
आगे-आगे देख रहा है,
किसी तरह
तारे उगने तक
आपस ही में मिल पाते हैं
बैठ, बोल, बतियाने का
अवसर मिलने पर
आपस ही की बातें कम हैं?
और बहू के बच्चों को तो
हर वसंत में माँ की अपने आँगन के अमुवा की बातें
निपट जुगाली-सी लगती हैं
सुंदर चेहरों की तस्वीरें मन में टाँके
किसे भला ये गाल पोपले सोहा करते?
छुट्टी वाली सुबह हुई भी
दिनभर बंद निजी कमरों में
आपस में खोए रहते हैं।
दिनभर भागा करती
चिंतित
इसे खिलाती, उसे मनाती
दो पल का भी चैन नहीं था
तब इस माँ को,
अब फुर्सत में खाली बैठी
पल-पल काटे
पास नहीं पर अब कोई भी।
फुर्सत बेमानी लगती है
अपना होना भी बेमानी
अपने बच्चों में अनजानी
माँ बूढी़ है।
कान नहीं सुन पाते उतना
आँख देखती धुँधला-धुँधला
हाथ काँपते ही रहते हैं
पाँव लड़खडा़ कर चलते हैं
पलकों से नींदें गायब हैं
उभरा सीना पिचक गया है
गालों की रंगत ढुलकी है
होठों की काली सुरखी है
कमर धरा की ओर झुकी है
मिट्टी में अस्तित्व खोजती
बेकल माँ के
मन में
लेकिन
बेटे के मिलने आने की
अविचल आशा
चढी़ हिंडोले झूल रही है,
सूने रस्ते
बाट जोहती
धुँधली आँखों
अपनी ही छाया के
पाँव टोहती माँ के
चरणों में नतशिर होने का
दिन आने से पहले-पहले...।