भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ / हरकीरत हकीर

Kavita Kosh से
Mani Gupta (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:16, 26 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरकीरत हकीर }} {{KKCatNazm}} <poem>माँ बोलती तो...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

माँ बोलती तो कहीं
गुफाओं के अन्दर से
गूंज उठते अक्षर …
मंदिर की घंटियों में मिल
लोक गीतों की तरह गुनगुना
उठते माँ के बोल …

माँ रोटी तो
उतर आते
आसमान पर बादल
कहीं कोई बिल्ली चमकती
झुलस जाती टहनियां
कुछ दरख़्त खड़े रहते अडोल ….

माँ पत्थर नहीं थी
पानी या आग भी नहीं थी
वह तो आंसुओं की नींव पर उगा
आशीषों का फूल थी …
आज भी जब देखती हूँ
भरी आँखों से माँ की तस्वीर
उसकी आँखों में
उतर आते हैं
दुआओं के बोल … !!