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माखन-चोरी / सूरदास

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मैया री, मोहिं माखन भावै ।
जो मेवा पकवान कहति तू, मोहिं नहीं रुचि आवै ।
ब्रज-जुवती इक पाछै ठाढ़ी, सुनत श्याम की बात ।
मन-मन कहति कबहुँ अपनैं घर, देखौं माखन खात ।
बैठे जाइ मथनियाँ कैं ढिग, मैं तब रहौं छपानी ।
सूरदास प्रभु अंतरजामीं ग्वालिनि मन की जानी ॥1॥


गए स्याम तिहिं ग्वलिनि कैं घर ।
देख्यौ द्वार नहीं कोउ, इत-उत चितै चलै तब भीतर ।
हरि आवत गोपी जब जान्यौ, आपुन रही छपाइ ।
सूनें सदन मथनियाँ कैं ढिग, बैठि रहे अरगाइ ।
माखन भरी कमोरी देखत लै-लै लागे खान ।
चितै रहे मनि-खंभ-छाँह तन, तासौं करत सयान ।
प्रथम आजु मैं चोरी आयौ, भलौ बन्यौ है संग ।
आपु खात प्रतिबिंब खवावत, गिरत कहत, का रंग ?
जौ चाहौ सब देउँ कमोरी, अति मीठो कत डारत ।
तुमहि देति मैं अति सुख पायौ, तुम जिय कहा बिचारत ।
सुनि-सुनि बात स्याम के मुख की उमँगि उठी ब्रजनारी ।
सूरदास प्रभु निरखि ग्वालि मुख तब भजि चले मुरारी ॥2॥


प्रथम करी हरि माखन-चोरी ।
ग्वालिनि मन इच्छा करि पूरन, आपु भजे ब्रज खोरी ।
मन मैं यहै विचार करत हरि, ब्रज घर-घर सब जाऊँ ।
गोकुल जनम लियौ सुख कारन, सबकैं माखन खाऊँ ।
बाल-रूप जसुमति मोहिं जानै,गोपनि मिलि सुख भोग ।
सूरदास प्रभु कहत प्रेम सौं, ये मेरे ब्रज-लोग ॥3॥


गोपालहिं माखन खान दै ।
सुनि री सखी, मौन ह्वै रहिए, बदन दही लपटान दै ।
गहि बहियाँ हौं लैके जैहैं, नैननि तपति बुझान दै ।
याकौ जाइ चौगुनी लैहौं, मोहिं जसुमति लौं जान दै ।
तू जानति हरि कछू न जानत,सुनत मनोहर कान दै ।
सूर स्याम ग्वालिनि बस कीन्हीं, राखतिं तन मन प्रान दै ॥4॥


जसुदा कहँ लैं कीजै कानी ।
दिन-प्रति कैसें सही परति है, दूध-दही की हानि ।
अपने या बालक की करनी, जौ तुम देखौ आनि ।
गोरस खाइ, खवावै लरिकिन, भजत भाजन भानि ।
मैं अपने मंदिर के कोनै, राख्यौ माखन छानि ।
सोई जाइ तिहारैं ढौटा, लीन्हौ है पहिचानि ।
बूझि ग्वालि निज गृह मैं आयौ, नैं कु न संका मानि ।
सूर स्याम यह उतर बनायौ, चींटी काढ़त पानि ॥5॥


आपु गए हरुऐं सूनैं घर ।
सखा सबै बाहिर ही छाँड़े, देख्यौ दधि-माखन हरि भीतर ।
तुरत मथ्यौ दधि-माखन पायौ, लै लै खात, धरत अधरनि पर ।
सैन देइ सब सखा बुलाए, तिनहिं देत भरि-भरि अपनैं कर ।
छिटकी रही दधि-बूँदि हृदय पर, इत-उत चितवत करि मन मैं डर ।
उठत ओट लै लखत सबनि कौं , पुनि लै खात ग्वालनि बर ।
अंतर भई ग्वालि यह देखति मगन भई, अति उर आनंद भरि ।
सूर स्याम मुख निरखि थकित भई, कहत न बनै, रही मन दै हरि ॥6॥


जान जु पाए हौं हरि नीकैं ।
चोरि-चोरि दधि माखन मेरी, नित प्रति गीधि रहे हो छीकैं ।
रोक्यौ भवन-द्वार ब्रज-सुन्दरि, नूपुर मूँदि अचानक ही कै ।
अब कैसे, जैयतु अपने बल, भाजन भाँजि, दूध दधि पी कै ?
सूरदास प्रभु भलैं परे फंद, देउँ न जान भावते जी कैं ।
भरि गंडुष, छिरकि दै नैननि, गिरिधर भाजि चले दै कीकै ॥7॥


अब ये झूठहु बोलत लोग ।
पाँच बरष अरु कछुक दिननि कौ, कब भयौ चोरी जोग ।
इहिं मिस देखन आवति ग्वालिनि, मुँह फाटे जु गँवारि ।
अनदोषे कौं दोष लगावतिं, दई देइगौ टारि ।
कैसें करि याकी भुज पहुँची, खौन बेग ह्याँ आयौ ?
ऊखल ऊपर आनि, पीठि दै, तापर सखा चढ़ायौ ।
जौ न पत्याहु चलो सँग जसुमति, देखौ नैन निहारी ।
सूरदास प्रभु नैकुँ न बरजौ, मन मै महरि विचारी ॥8॥


इन अखियन आगैं तै मोहन, एकौ पल जनि होहु नियारे ।
हौं बलि गई, दरस देखैं बिनु तलफत है नैननि के तारे ।
औरों सखा बुलाइ आपने इहिं आँगन खेलौ मेरे बारे ।
निरखति रहौं फनिग की मनि ज्यौं, सुन्दर बाल-विनोद तिहारे ।
मधु, मेवा, पकवान, मिठाई व्यंजन खाटे, मीठे खारे ।
सूर स्याम जोइ-जोइ तुम चाहौ. सोइ-सोइ माँगि लेहु मेरे बारे ॥9॥


चोरी करत कान्ह धरि पाए ।
निसि-बासर मोहिं बहुत सतायौ अब हरि हाथहिं आए ।
माखन-दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अचगरी कीन्ही ।
अब तौ घात परे हौ लालन, तुम्हैं भलैं मैं चीन्ही ।
दोउ भुज पकरि, कह्यौ कहँ जैहौं, माखन लेउँ मँगाइ ।
तेरी सौं मैं नैकुँ न खायौ, सखा गये सब खाइ ।
मुख तन चितै, बिहँसि हरि दीन्हौं, रिस तब गई बुझाइ ।
लियौ स्याम उर लाइ ग्वालिनी, सूरदास बलि जाइ ॥10॥


कान्हहिं बरजति किन नँदरानी ।
एक गाउँ कैं बसत कहाँ लौं करैं नंद की कानी ।
तुम जो कहति हौ, मेरो कन्हैया, गंगा कैसौ पानी ।
बाहिर तरुन किसोर बयस बर, बाट घाट कौ दानी ।
बचन बिचित्र, कमल-दल-लोचन, कहत सरस बर बानी ।
अचरज महरि तुम्हारे आगैं अबै जीभ तुतरानी ।
कहँ मेरौ कान्ह, कहाँ तुम ग्वारिनि, यह बिपरीतिन जानी ।
आवति सूर उरहने कैं मिस,देखि कुँवर मुसुकानी ॥11॥


मथुरा जाति हौं बेचन दहियौ ।
मरै घर कौ द्वार, सखी री, तललौं देखति रहियौ ।
दधि-माखन द्वै माट अछूते तोहिं सौंपति हौं सहियौ ।
और नहीं या ब्रज मैं कोऊ, नन्द-सुवन सखि लहियौ ।
ते सब बचन सुने मन-मोहन, वहै राह मन गहियौ ।
सूर पौरि लौं गई न ग्वालिन, कूद परे दै धहियौ ॥12॥


गए स्याम ग्वालिनि घर सूनैं ।
माखन खाइ, डारि सब गोरस, फोरि किए सब चूने ।
बड़ौ माट इक बहुत दिननि कौ, ताहि कर्‌यौ दस टूक ।
सोवतत लरिकनि छिरकि महीं सौं, हँसत चले दै कूक ।
आई ग्वालिनि तिहिं औसर, निकसत हरि धरि पाए ।
देखे घर बासन सब फूटे, दूध दही ढरकाए ।
दोउ भुज धरि गाढ़ैं करि लीन्हे, गई महरि कै आगै ।
सूरदास अब बसे कौन ह्याँ, पति रहिहैं ब्रज त्यागैं ॥13॥


करत कान्ह ब्रज-घरिन अचगरी ।
खीझति महरि कान्ह सौं पुनि-पुनि, उरहन लै आवति हैं सगरी ।
बड़े बाप के पूत कहावत, हम वै वास बसत इक बगरी ।
नन्दहु तैं ये बड़े कहैहैं फेरि बसैहैं यह ब्रज नगरी ।
जननी कैं खीझत हरि रोए, झूठहिं मोहिं लगावति धगरी ।
सूर स्याम मुख पोंछि जसोदा. कहति सबै जुवती हैं लँगरी ॥14॥


अपनौ गाउँ लेउ नँदरानी ।
बड़े बाप की बेटी, पूतहि भली पढ़ावति बानी ।
सखा-भीर लै पैठत घर मैं आपु खाइ तौ सहिऐ ।
मैं जब चली सामहैं पकरन, तब के गुन कहा कहिऐ ।
भाजि गए दुरि देखत कतहूँ, मैं घर पौढ़ी आइ ।
हरैं हरैं बेनी गहि पाछैं, बाँधी पाटी लाइ ।
सुनु मैया, याके गुन मोसौं, इन मोहिं लयौ बुलाई ।
दधि मैं पड़ी सेंत की मोपै चीटी सबै कढ़ाई ।
टहल करत मैं याके घर की यह पति सँग मिलि सोई ।
सूर बचन सुनि हँसी जसोदा, ग्वाल रही मुख गोई ॥15॥


महरि तें बड़ी कृपन है माई ।
दूध-दही बहु बिधि कौ दीनौ, सुत सौं धरति छपाई ।
बालक बहुत नहीं री तेरैं एकै कुँवर कन्हाई ।
सोऊ तौ घरही घर डोलतु, माखन खात चोराई ।
वृद्ध बयस, पूरे पुन्यनि तैं, बहुतै निधि पाई ।
ताहूँ के खैबे-पीबे कौं, कहा करति चतुराई ।
सुनहुँ न वचन चतुर नागरि के जसुमति नन्द सुनाई ।
सूर स्याम कौं चोरी कैं मिस देखन है यह आई ॥16॥

अनत सुत गोरस कौं कत जात ?
घर सुरभी कारी धौरी कौ माखन माँगि न खात ।
दिन प्रति सबै उरहने कैं मिस, आवति है उठि प्रात ।
अनलहते अपराध लगावति, बिकटि बनावतिं बात ।
निपट निसंक बिबादहिं संमुख, सुनि-सुनि नन्द रिसात ।
मोसौं कहतिं कृपन तेरैं घर ढौटाहू न अघात ।
करि मनुहरि उठाइ गोद लै, बरजति सुत कौं मात ।
सूर स्याम नित उरहनौ, दुख पावन तेरौ तात ॥17॥

हरि सब भाजन फोरि पराने ।
हाँक देत पैठे दै पेला नैंकु न मनहिं डराने ।
सींके छोरि, मारि लरकनि कौं, माखन-दधि सब खाई ।
भवन मच्यौ दधि काँदौ, लरिकन रोवत पाए जाई ।
सुनहु-सुनहु सबहिनि के लरिका, तैरौ सौ कहुँ नाहिं ।
हाटनिं-बाटनि, गलिनि कहुँ कोउ चलत नहीं डरपाहिं ।
रितु आए कौ खेल, कन्हैया सब दिन खेलत फाग ।
रोकि रहत गहि गली साँकरी, टेढ़ी बाँधत पाग ।
बारे तैं सुत ये ढंग लाए, मनहीं मनहिं सिहाति ।
सुनैं सूर ग्वालिनि की बातैं, सकुचि महरि पछिताति ॥18॥

कन्हैया तू नहिं मोहिं डरात ।
षटरस धरे छाँड़ि कत पर घर, चोरी करि करि खात ।
बकत-बकत तोसौं पचिहारी, नैंकुहुँ लाज न आई ।
ब्रज-परगन-सिगदार महर, तू ताकी करत नन्हाई ।
पूत सपूत भयौ कुल मेरैं, अब मैं जानी बात ।
सूर स्याम अब लौं तुहिं बकस्यौ, तेरी जानी घात ॥19॥

मैया मैं नहिं माखन खायौ ।
ख्याल परैं ये सखा सबै मिलि, मेरै मुख लपटायौ ।
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊँचे धरि लटकायौ ।
हौं जु कहत नान्हे कर अपनैं मैं कैसें करि पायौ ।
मुख दधि पोंछि, बुद्धि एक कीन्ही, दोना पीठि दुरायौ ।
डारि साँटि मुसुकाइ जसोदा, स्यामहिं कंठ लगायौ ।
बालबिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ ।
सूरदास जसुमत कौ यह सुख, सिव बिरञ्चि नहिं पायौ ॥20॥

जसुमति तेरौ बारौ कान्ह अतिही जु अचगरौ ।
दूध-दही माखन लै डारि देत सगरौ ।
भोरहिं नित प्रतिही उठि, मोसौं करत झगरौ ।
ग्वाल-बाल संग लिए घेरि रहै डगरौ ।
हम-तुम सब बैस एक, कातैं को अगरौ ।
लियौ दियौ सोई कछु, डारि देहु झगरौ ।
सूर श्याम तेरौ अति, गुननि माहिं अगरौ ।
चोली अरु हार तोरि, छोरि लियौ सगरौ ॥21॥


ऐसी रिस मैं जौ धरि पाऊँ ।
कैसे हाल करौं धरि हरि के, तुमकौं प्रकट दिखाऊँ ।
सँटिया लिए हाथ नँदरानी, थरथरात रिस गात ।
मारे बिना आजु जौ छाँड़ौं, लागै मेंरैं तात ।
इहिं अंतर ग्वारिनि इक औरै, धरे बाँह हरि ल्यावति।
भली महरि सूधौ सुत जायौ, चोली-हार बतावति ।
रिस मैं रिस अतिहीं उपजाई, जानि जननि अभिलाष ।
सूर स्याम भुज गहे जसोदा, अब बाँधौ कहि माष ॥22॥


बाँधौ आजु कौन तोहिं छौरें ।
बहुत लँगरई कीन्हौं मोसों, भुज गहि रजु ऊखल सौं जोरै ।
जननी अति रिस लानि बँधायौ, निरखि बदन, लोचन जल ढोरै ।
यह सुनि ब्रज-जुवतीं सब धाईं कहतिं कान्ह अब गयौं नहिं छौरै ।
ऊखल सौं गहि बाँधि जसोदा, मारन कौं साँटी कर तोरै ।
साँटी देखि ग्वालि पछितानी, बिकल भई जहँ-तहँ मुख मोरै ।
सुनहु महरि ऐसी न बूझिऐ सुत बाँधति माखन दधि थोरैं ।
सूर स्याम कौं बहुत सतायो, चूक परी हम तैं यह भौरैं ॥23॥


कहा भयौ जौ घर कैं लरिका चोरी माखन खायौ ।
अहो जसोदा कत त्रासति हौ यहै कोखि को जायौ ।
बालक अजौं अजान न जानै केतिक दह्यौ लुटायौ ।
तेरी कहा गयौ ? गोरस कौ गोकुल अंत न पायौ ।
हा हा लकुट त्रास दिखरावति आँगन पास बँधायौ ।
रुदन करत दोउ नैन रचे हैं, मनहुँ कमल-कन छायौ ।
पीढ़ि रहे धरनी पर तिरछैं बिलखि बदन मुरझायौ ।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि , हँसि करि कंठ लगायौ ॥24॥


हलधर सौं कहि ग्वालि सुनायौ ।
प्रातहिं तैं तुम्हरौ लघु भैया, जसुमति ऊखल बाँधि लगायौ ।
काहू के लरिकहिं हरि मार्‌यो, भोरहि आनि तिनहिं गुहरायौ ।
तबहीं तें बाँधे हरि बैठे, सो हम तुमकौं आनि जनायौ ।
हम बरजी,बरज्यौ नहिं मानति; सुनतहिं बल आतुर ह्वै धायौ ।
सूर स्याम बैठे ऊखल लगि, माता उर तनु अतिहि त्रसायौ ॥25॥


यह सुनि कै हलधर तहँ धाए ।
देखि स्याम ऊखल सौं बाँधे, तबहों दोउ लोचन भरि आए ।
मैं बरज्यौ कै बार कन्हैया, भली करी दोउ हाथ बँधाए ।
अजहूँ छाँड़ौगे लँगराई, दोउ कर जोर जननि पै आए ।
स्यामहिं छोरि मोहिं बाँधे बरु, निकसत सगुन मले नहिं पाए ।
मेरे प्रान-जिवन-धन कान्हा, तिनके भुज मोहिं बँधे दिखाए ।
माता सौं कह करौं ढिठाई, सो सरूप कहि नाम सुनाए ।
सूरदास तब कहति जसोदा दोउ भैया तुम इक मत पाए ॥26॥

तबहिं स्याम इक बुद्धि उपाई ।
जुवती गईं घरनि सब अपनैं, गृह कारज जननी अटकाई ।
आपु गए जमलार्जुन-तरु-तर, परसत पात उठै झहराई ।
दिए गिराइ धरनि दोऊ तरु, सुत कुवेर के प्रगटे आई ।
दोउ कर जोर करत दोउ अस्तुति, चारि भुजा तिन्ह प्रगट दिखाई ।
सूर धन्य ब्रज जनम लियौ हरि, धरनी की आपदा नसाई ॥27॥


अब घर काहूँ कैंजनि जाहु ।
तुम्हरैं आजु कमी काहे की,कत तुम अनतहिं खाहु ।
बरै जेंवरी जिहिं तुम बाँधै, परै हाथ भहराह ।
नंद मोहिं अतिहीं त्रासत हैं, बाँधँ कुँवर कन्हाइ ।
रोग जाउ हलधर के, छोरत हो तब स्याम ।
सूरदास प्रभु खात फिरौ जनि, माखन-दधि तुव धाम॥28॥

भूखौ भयौ आजु मेरी बारौ ।
भोरहिं ग्वारि उरहनौ ल्याई, उहिं यह कियौ पसारौ ।
पहिलेहिं रोहिनि सौं कहि राख्यौ, तुरत कर जेवनार ।
ग्वाल-बाल सब बोलि लिए, मिलि बैठे नन्द-कुमार ।
भोजन बेगि ल्याउ कछु मैया, भूख लागि मोहि भारी ।
आजु सबारे कछु नहिं खायौ, सुनत हँसी महतारी ।
रोहिनी चितै रही जसुमति-तन, सिर धुनि-धुनि पछितानी ।
परसहु बेगि बेर कत लावति, भूखे साँरगपानी ।
बहु ब्यंजन बहु भाँति रसोई, षटरस के परकार ।
सूरस्याम हलधर दोउ भैया, और सखा सब ग्वार ॥29॥

मोहिं कहतिं जुवती सब चोर ।
खेलत कहूँ रहौं मैं बाहिर, चितै रहतिं सब मेरी ओर ।
बोलि लेतिं भीतर घर अपनैं, मुख चूमतिं भरि लेतिं अँकोर ।
माखन हेरि देतिं अपनैं कर कछु कहि बिधि सौं करतिं निहोर ।
जहाँ मोहिं देखतिं, तहँ टेरतिं, मैं नहिं जात दुहाई तोर ।
सूर स्याम हँसि कंठ लगायौ, वै तरुनी कहँ बालक मोर ॥30॥

जसुमति कहति कान्ह मेरे प्यारे, अपनैं ही आँगन तुम खेलौ ।
बोलि लेहु सब सखा संग के, मेरी कह्यौ कबहुँ जिनि पेलौ ।
ब्रज-बनिता सब चोर कहतिं तोहिं, लाजन सकुचि जात मुख मेरौ ।
आजु मोहिं बलराम कहत हे, झूठहिं नाम धरति हैं तेरी ।
जब मोहिं रिस लागति तब त्रासति, बाँधति, मारति जैसें चेरी ।
सूर हँसति ग्वालिन दे तारी, चोर नाम कैसेहुँ सुत फेरौ ॥31॥