भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मानवो ! स्वागत तुम्हारा / विंदा करंदीकर / रेखा देशपाण्डे

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:27, 10 अप्रैल 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विंदा करंदीकर |अनुवादक=रेखा देशप...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पर्वतो, परे हटो ! सागरो ! दूर हटो !
खोल दिया द्वार मैंने, मानवो, स्वागत तुम्हारा ।

तूफ़ानों से कैसा डरना
वही तो मेरा गीत गाते
आँधियों को जन्म देता सांस का संसार मेरा ।

भूख मेरी बढ़ गई है
प्राण है फूला हुआ
फैले हुए हैं पंख मेरे, आकाश छोटा पड़ रहा ।

जीत लिया है कालसर्प को
व्योमगामी होकर मैंने
चञ्चु विद्युत् हुई मेरी औ' पंख पसारे मेघमाला ।

एकाग्र हो साधे है मेरी
देह, विश्व-एकता
मानवों को बाँधने वालों की क़िस्मत आज कारा ।

दुर्बलों को, दुखितों को,
शापितों को, शोषितों को
क्षितिज की बाहों से है, आज आलिंगन मेरा ।

मराठी भाषा से अनुवाद : रेखा देशपाण्डे