भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मानस के मंदिर में जलती अब भी कैसी यह स्नेह-शिखा (द्वितीय सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
Vibhajhalani (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:04, 17 जुलाई 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मानस के मंदिर में जलती अब भी कैसी यह स्नेह-शिखा
मैं बुझा न पाती हूँ जिसको आँसू बरसा कर, आँख दिखा
 
जलती अनंत बाड़व-सी अब यह ज्वाला शांत नहीं होगी
परित्यक्त प्रणय की तीव्र व्यथा पल भर विश्रांत नहीं होगी
 
रह गये भग्न सपनों-से जो आँसू वरुणी की नोकों में
मैं हार उन्हीं का लिये, विकल भटकूँगी तीनों लोकों में
 
नयनों के जल से धरती के सरिता-सर-सागर भरती-सी
मैं पावस-बाला-सी नभ से निकलूँगी क्रंदन करती-सी
 
सिहरेंगे मेरी सिसकी से सुर-बालाओं के केलि-शयन
जब प्रात-क्षितिज पर आऊँगी मैं करने तारक-पुष्प-चयन
 
संध्या-सी सागर-तीर खड़ी युग-युग  तक मैं विरहिन बाला
उन्मत्त पुकारूँगी प्रिय को पहने आँसू की मणि-माला
 
मधुऋतु में तरु की डाली से मैं कोयल-सी चिल्लाऊँगी
पतझड़ के चीर उड़ा वन में झंझा-सी झोंके खाऊँगी
 
तन काँप रहा था तिनके-सा बिजली को भुजपाशों में भर
रोता है परवश यौवन ज्यों निष्फलता से सिर टकरा कर
 
'ओ निर्मम तेरी स्मिति मन में शर-सी रह-रह चुभ जाती है
प्रिय के वियोग में फट न गयी यह, हाय! कुलिश की छाती है
 
धिक् जीवन! श्वास-तृषा जिसकी अब तक भी हो न सकी पूरी
बढ़ रही वयस-सी क्षण-क्षण में यद्यपि जीवनधन की दूरी
 
तितली-सी सँग-सँग उड़ न गयीं, पाकर भी पलकों की पाँखें
अब दीन मीन-सी तड़प रहीं, रो-रो जलहीन हुई आँखें
 
अब लौट न आओ परदेशी! देखो दिन बढ़ता जाता है
क्षण-भर में टूटेगा कैसे युग-युग जोड़ा जो नाता है!
 
आ जाओ मेरे यश-लोलुप! कह आज पिता से मैं अपने
दैत्यों का राज दिला तुमको पूरे कर दूँगी सब सपने
 
उर्वशी यहीं खिँच आयेगी वंदी सुरपति के साथ-साथ
दिखलाना उसकी नृत्य-कला मुझको चरणों में बिठा नाथ!'
 
प्रतिध्वनि से टकराकर मन की कातरता बंधन तोड़ चली
गिरि-निर्झर-धारा से लेती आँसू की धारा होड़ चली
 
तनु-लता सिहरती थी रह-रह मूर्छित लिपटी तरु-माला से
जल-जल उठती हो ज्योति बुझी जैसे अपनी ही ज्वाला से
 
प्रश्नों की मूक शिलाओं से मलयानिल सिर टकराता था
फूलोंसे रो-रोकर कहतीं किरणें, इतना ही नाता था