भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"मासूम परिन्दों के टूटे हुए पर देखो / ज़ाहिद अबरोल" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=ज़ाहिद अबरोल |संग्रह=दरिया दरिया-...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
छो
 
पंक्ति 16: पंक्ति 16:
 
उनका भी जिगर देखो, और अज़्म-ए-सफ़र देखो
 
उनका भी जिगर देखो, और अज़्म-ए-सफ़र देखो
  
पŸाों की ज़बां समझंे, शाख़ों की फुग़ां समझंे
+
पाँवों की ज़बां समझें, शाख़ों की फुग़ां समझें
 
इस फ़न के हैं हम माहिर, अपना यह हुनर देखो
 
इस फ़न के हैं हम माहिर, अपना यह हुनर देखो
  

04:01, 27 अक्टूबर 2015 के समय का अवतरण


मा‘सूम परिन्दों के, टूटे हुए पर देखो
बस्ती के फ़क़ीरो अब, जंगल में ही घर देखो

बंध जाता है जब रिश्तः, रस्ते का मुसाफ़िर से
तब दोनों के चेहरों पर, इक नूर-ए-दिगर देखो

बीमारी की हालत में, ‘सुग़रा’ को जो छोड़ आये
उनका भी जिगर देखो, और अज़्म-ए-सफ़र देखो

पाँवों की ज़बां समझें, शाख़ों की फुग़ां समझें
इस फ़न के हैं हम माहिर, अपना यह हुनर देखो

यह अहल-ए-सियासत अब, तहज़ीब नई लाए
ख़ुद लूट के इस जानिब, कहते हैं उधर देखो

बादल की तरह तन्हा, आवारः हैं हम “ज़ाहिद”
ले जाये कहां हमको, अब अपना सफ़र देखो


शब्दार्थ
<references/>