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माहवारी / दामिनी

6 bytes added, 07:30, 6 जून 2020
पैरों में चलने की ताक़त नहीं है,
जांघों में जैसे पत्थर की सिल भरी है।
पेट की अंतड़ियांअंतड़ियाँ
दर्द से खिंची हुई हैं।
इस दर्द से उठती रूलाई
दुकानदार ने काली थैली में लपेट
मुझे ‘वो’ चीज लगभग छिपाते हुए पकड़ाई थी।
 
आज तो पूरा बदन ही
दर्द से ऐंठा जाता है।
पर घुमा-फिरा के मुझे ही
निशाना बनाता है।
 
मैं अपने काम में दक्ष हूं।
पर कल से दर्द की वजह से पस्त हूं।
और मेरी स्थिति शायद उसे
व्हीसपर के देखे किसी ऐड की याद दिलाती है।
 
अपने स्वर की सख्ती को अस्सी प्रतिशत दबाकर,
कहता है, ‘‘काम को कर लेना,
पीछे कुर्ते पर कोई ‘धब्बा’
उभर आने की।
यहां यहाँ राहत थी
अस्सी रुपये में खरीदे आठ पैड से
‘हैव ए हैप्पी पीरियड’ जुटाने की।
 
मैं असहज थी क्योंकि
मेरी पीठ पर अब तक, उसकी निगाहें गढ़ी गड़ी थीं,
और कानों में हल्की-सी
खिलखिलाहट पड़ी थी
और हंसकर इन औरतों को
बराबरी करने के मौके देते हैं।’’
 
ओ पुरुषो!
मैं क्या करूं
तुम्हारी इस सोच पर,
कैसे हैरानी ना जताऊं?
और ना ही समझ पाती हूंहूँ
कि कैसे तुम्हें समझाऊं!
मैं आज जो रक्त-मांस
उसी मांस-लोथड़े से कभी वक्त आने पर,
तुम्हारे वजूद के लिए,
‘कच्चा माल’ जुटाती हूं। हूँ।  
और इसी माहवारी के दर्द से
मैं वो अभ्यास पाती हूंहूँ,
जब अपनी जान पर खेल
तुम्हें दुनिया में लाती हूं। हूँ।
इसलिए अरे ओ मदो!
ना हंसो हँसो मुझ पर कि जब मैं
इस दर्द से छटपटाती हूं,
क्योंकि इसी माहवारी की बदौलत मैं तुम्हें
‘भ्रूण’ से इंसान बनाती हूं। हूँ।
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